मां
चुपचाप आ गयी रात
मेरे बंद आंखों में
नींद को दिया धकेल
वही किसी कोने में .
यादों का पिटारा खुल गया
खिलखिलाती मां आई
लगा हृदय टुक-टुक करने
चाहा रोक लूं खुद को
पर रूकी नहीं रूलाई
आंचल से आंसू पोंछा
कहा,पगली रोती है!
जिम्मेदारियां ‘बड़ी’ हैं?
या फिर,
‘बड़ी’ होने से डरती है?
अरे, मैं ‘कहां ‘दूर हूं तुझसे
हां, है छूटा यह जग मुझसे.
तो क्या,
यही हूं अंदाज में तेरे
विचार में तेरे,भाव में तेरे
सोच और व्यवहार में तेरे
नैन-नक्श-अक्स में तेरे
झोंकें की तरह आई थी
चांदनी के संग चली गई।
–पूनम (कतरियार), पटना