मां, तेरी कृपा का आकांक्षी।
हे हंसवाहिनी ! ज्ञान दायिनी !
अज्ञानता हरो तुम मेरी,
जीवन – ज्योति जला हिय में
तम दूर करो तुम तो मेरी।
आज तूलिका शिथिल हुई है
इसको आलस ही अब भाये,
इसमें गति दिनकर सी भर दो
बन उद्दीप्त ये खिल जाये।
निश्चित हूँ मै मनुष्य मात्र
अनजान गुनाहों का हूँ भागी,
शरण में तेरे आया हूँ
बन तेरी कृपा का आकांक्षी।
जाग्रत हो विवेक का भाव
अविवेक हमें नहि छू पाये,
निश्चित दोषो से विलग रहूँगा
मां,ममता दया जो तेरी बरसे।
तेरे ही गुणगान लिखूंगा
माँ शारदे निरापद ही,
विचलित कभी नही होऊंगा
कितना भी हो आपद ही।
तेरे कर की वीणा माता
मेरे कलम की बनेगी ज्योती,
करता नमन निर्मेष शारदे !
लिख रहा आपकी अमर कीर्ति।