मां जब मैं तेरे गर्भ में था, तू मुझसे कितनी बातें करती थी…
मेरी कलम से…
आनन्द कुमार
मां जब मैं तेरे गर्भ में था,
तू मुझसे कितनी बातें करती थी,
माँ तू मेरा कितना ख़्याल रखती थी,
आँचल में छुपा कर अपने हाथ को,
पेट को सहलाया करती थी,
मैं न करूँ तंग तुम्हें,
बस मुझको समझाया करती थी,
सच में माँ, तुम कितना प्यार करती थी,
याद है माँ, मैं जैसे-जैसे बड़ा हो रहा था,
तेरे इरादों अनुसार, मैं आकार ले रहा था,
प्रसव वेदना की तारीख़,
जस-जस नज़दीक आ रही थी,
मेरे जन्म को लेकर माँ,
तुम भावुक हो जा रही थी,
सच में माँ तुम कितनी डर जाती थी,
आँखों में समेट के तुम अपनी ख़ुशियाँ,
पापा को बाँहों में भर लेती थी,
कहती थी सब अच्छा होगा न,
और चुपके-चुपके तुम रो लेती थी,
साहस पापा जब तुमको देते,
फिर भी तुम मुझसे यह पूछा करती थी,
अच्छे से तुम आओगे ना,
सच-सच बतलाओ ना,
माँ मैं तो तेरी दुनिया में,
मस्ती में जीता था,
हस्ती मेरी सबसे अच्छी,
बस यही बात रटता था,
गर्भ गृह के बंद कोठरी में,
जब मेरी किलकारी गूंजी थी,
माँ तेरे आँखों में आँसू था,
ख़ुशी में मोती समझ तुम पी ली थी,
माँ तेरी वेदना से, मैं भी डर गया था,
पर तेरी ख़ुशियों की ख़ातिर
मैं खुद से लड़ गया था,
पहली बार जब तेरे वात्सल्य का,
स्तन को मुँह लगाया था,
माँ अमृत की बूँदे पाकर,
अपना जीवन धन्य बनाया था,
माँ तेरे आँचल की ममता में,
मैं अपना जीवन महकाया था,
मां तेरे खुशी समेटे दर्द की बदौलत ही तो,
मैं इस संसार में आया था,
मां मैं तुमसे हूं, तुम मुझसे से,
हम दोनों ने एक दूजे को पाया था,
हम दोनों से पापा की आंखों में,
प्रेम का समंदर भर आया था…