मां (कविता)
मां के चेहरे की झलक देख
चेहरा फूलों सा खिलता है
उसका नन्हा सा आंचल ही
भूमंडल–सा लगता है
मैं उसका राजा बेटा हूं
आंखों का तारा कहती है
मैं बनूं बुढ़ापे में उसका
बस एक सहारा कहती है
बालों को नोचा करता था
पैरों से खूब प्रहार किया
फिर भी मां ने पुचकारा था
बाहों में भर कर प्यार किया
उंगली को पकड़ चलाया था
पढ़ने विद्यालय भेजा था
मेरी नादानी को भी निज–अंतर में
सदा सहेजा था
मेरे सारे प्रश्नों की वो
फौरन जवाब बन जाती है
मेरी राहों के कांटे चुन
वह खुद गुलाब बन जाती है
मां जिसको भी जल दे दे वह
पौधा संबल बन जाता है
मां के चरणों को छू कर तो
पानी गंगाजल बन जाता है
गर मां अपमानित होती है
तो धरती भी फट जाती है
मां की ममता देख मौत भी
पीछे ही हट जाती है
©अभिषेक पाण्डेय अभि