माँ
मानती हूँ। कभी गुस्सा तुझपर निकालती हूँ।
अपनी मन की भड़ास भी तुझपर ही निकालती हूँ।
पर माँ, बस एक तू ही तो है, जिसके साथ मैं हर चीज़ बाँटना भी चाहती हूँ।
न कोई दिखावा। न कोई बनावट।
तू है प्यार की इकलौती मूरत।
बिना बोले, तू सब समझ जाती।
मेरा दर्द, तू अपना बना लेती।
मेरी खुशी की चाहे दुनिया को फर्क पड़े न पड़े,
तुझे ज़रूर पड़ती है।
चाहे हफ़्तों तक मैं बात करना बंद कर दूँ।
गलतियों की मेरे कोई रोक नहीं।
पागल हूँ। जो तुझे कभी समझती नहीं।
मेरी चिंता तुझे तब भी सताती है।
हाँ माँ, मैं शायद बेटी उतनी कमाल नहीं।
पर तू माँ करोड़ो में एक है।
हिमश्वेता दूबे,
सायन, मुंबई।