माँ(2)
** माँ **
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माँ तो सिर्फ़ माँ है।
उसके सिवा दुनियाँ में
दूजा कौन कहाँ है?
हम समझें या न समझें
माँ सब समझती है,
अपने अंतर्मन में
सौगातें बुनती है।
हम माँ की ममता को
कहाँ समझते हैं?
हम तो बस माँ से झगड़ते हैं।
अपनी पीड़ा का रोते हैं रोना,
माँ की पीड़ा का भाव
कभी न पढ़ते हैं।
माँ के आँसू भी ढलकते हैं,
अपने में मगन हम कहाँ
उसके अंतर्मन में कभी
कहाँ झाँकते हैं।
हम तो माँ को,
सिर्फ हाँड़ माँस का
पुतला भर मानते हैं।
कर्तव्य की बात हम
कहाँ करते हैं?
हम तो सिर्फ अपना
अधिकार याद रखते हैं।
@सुधीर श्रीवास्तव