माँ
माँ ही गंगा, माँ ही यमुना, माँ सरस्वती सी पावन है,
माँ ही पतझड में एक चलता फिरता सावन है ।
माँ को देख लिया तो फिर इश्वर के दर्शन क्या करना,
माँ ने फैला दी बाहें तो फिर अन्धकार से क्या डरना । ।
माँ ही गंगा——
माँ में वो शक्ती है जो पीड़ा सहकर सृजन करे,
माँ वात्सल्य और ममता का एक अनोखा सागर है ।
माँ जलते हुए गमों के सहरा में एक अजब सा शीतल गागर है ।।
माँ के बिखरे बाल कभी, कभी आधी सोई लगती है,
दिन भर वो बस काम करे आराम नही वो करती है ।।
माँ बनाती बाल वो मेरे कभी काला टीका करती है,
रख दे हाथ वो माथे पर हर विपदा मुझ से डरती है ।।
माँ जड़ है मेरे जीवन की मा वेदो से भी उँची है ,
माँ की ममता का मोल नही ये रामायण की सूची है ।
करो प्रार्थना, करो आरती, चाहे कोई तप कर लो,
छू लो माँ के पैरो को चाहे राम नाम का जप कर लो।।