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20 Nov 2018 · 1 min read

माँ

उसकी हर इक बात निराली लगती है।
सूरत हरदम ईद दिवाली लगती है।
कैसे पिरों दूँ शब्दों में उसकी ममता
माँ मेरी पूजा की थाली लगती है।

आँचल में छुपा लेती है, जब होती तेज़ दुपहरी।
माँ पल में मना लेती है, करती न ज़रा भी देरी।
तुम देश, धर्म के दम पर उसकी ममता न तोलो
माँ तो बस माँ होती है, फिर क्या तेरी, क्या मेरी।

सारे जग का भार संभाले रख्खा है।
कही फूल तो खार संभाले रख्खा है।
देखके तुझको आज ज़माना कहता है
माँ तूने संसार संभाले रख्खा है।

मंज़िल कैसी भी हो, हासिल हो जाती है।
मुश्क़िल राहें अपने, क़ाबिल हो जाती है।
न मुमकिन है उसकी, इस जग में हार ‘रैनी’
जिस काम में माँ कि दुआ, शामिल हो जाती है।

डॉ.वर्षा तिवारी ‘रैनी’
गढ़ा बाजार, जबलपुर (म.प्र.)

यह मुक्तक स्वरचित एवं मौलिक है।

7 Likes · 40 Comments · 598 Views
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