माँ
किसमें सामर्थ्य है
‘माँ’ को परिभाषित/ परिमापित करने का,
सम्पूर्णता, पवित्रता, त्याग, ममत्व और प्रेम
और क्या नहीं निहित है ‘माँ’ में,
फिर कौन है?
जो समेट सके ‘माँ’ को गढ़े शब्दों में,
‘माँ’ का नाम आते ही
ममत्व, देवत्व और असंख्य शब्द संसार,
कैनवास पर उतरने लगते हैं,
तैयार होने लगती है
एक अदभुत प्रेममयी आकृति
जिसने अपने असंख्य प्रेम रंगों को,
बेहिचक निकालकर,
मेरे निर्जन कैनवास में भरा होगा .
‘माँ’ ‘श्री’ भी है और प्रथम गुरु भी,
‘माँ’ के बताए शब्द आज भी वैसे ही याद हैं
लोरियों की गूंज आज भी रूह को सुकून देती है,
और यह ‘माँ’ है,
जो प्रतिपल अदृश्य परिपालक बन,
साथ बनी रहती है.
– डॉ. सूर्यनारायण पाण्डेय
लखनऊ.