माँ
जब भी आता हूँ घर से मैं,
यूँ क्षुब्ध होकर देखती है मेरी माँ
जैसे बिछड़ रहा हो
उसका चाँद आज गगन से।
वो माँ की आँखों के निशब्द आँसू,
ममता वाला वो आँचल,
जिसमें छिपा है आज भी मेरा बचपन,
क्यों न मैं उसको अपना चार-धाम मानूँ?
जब-जब भी भटका हूँ अपने पथ से,
एक तूने ही तो थामा है मुझको माँ,
मेरी नज़रें बस तुझको ढूँढें,
तू ही तो है मेरा संसार माँ।
कैसे भूल सकता हूँ
मैं उस माँ की ममता को,
सींच दिया था जिसने
जीवन से अपने मुझको।
मेरे जीवन का एक-एक कतरा
‘माँ’ समर्पित तुम्हारे चरणों में,
नहीं चुका सकता मोल तुम्हारा,
‘उपमन्यु’ अगले सौ जन्मो में।
विकास उपमन्यु
बिजनौर, उत्तर-प्रदेश