माँ बहुत बुरी है
दिन वो बचपन के तब सब, पुराने लगते थे,
मुझे बेकार लोरियों के तराने लगते थे,
ऐसा लगता था, कोई संग धोखा हुआ है,
सफ़ल होने से मां ने मुझे रोका हुआ है,
रुला देता था मैं, शब्द कड़े बोलकर,
मुझे उड़ना था तब, पर मेरे खोलकर,
मां क्या जाने, कि मुझको बड़ा होना था,
इमारतों के शिखर पर खड़ा होना था,
था मैं कश्ती, न लगता था घर साहिल मुझे,
मां भी लगने लगी थी, फिर जाहिल मुझे,
मां के आगे, भर जो मेरा गला आया फिर,
मां की मर्जी से, उन्हे छोड़ मैं, चला आया फिर,
मैंने बनाई इक, दुनिया चमकती हुई,
मां नहीं याद थी, राह तकती हुई,
मां की आशंका हुई सच, संग धोखा हुआ,
समझ आया क्यूँ माँ ने था, रोका हुआ,
पास गया माँ के, फिर मैं सब कुछ छोड़कर,
जा चुकी थी माँ भी तब,बिन कफ़न ओढ़कर,
हाय! दिखावे का लबादा मैंने ढोया बहुत,
मुझे देख, माँ की हड्डियों का ढांचा रोया बहुत, रोया बहुत…!
कवि अज्ञात
दिल्ली