माँ की महिमा
ज्ञानवती होती है माता, मन की भाषा पढ़ लेती है ।
संतानें कब क्या चाहती, अनुभूति से तड़ लेती है ।
इतने गहरे मनोज्ञान को, कैसे मैं कविता में बांधूँ ॥
आकाश सी व्यापक ममता, जो सुन लेती चित धरती है ।
गीता रामायण की शिक्षा, संतानों को नित देती है ।
संस्कारमय उसकी शिक्षा, गुरुकुल की शिक्षा ही मानूँ ॥
जीवन मूल्य मानवी चिंतन, गौ मुख से निकली जलधारा ।
सरस्वती को अंक समेटे, पी जाती दुख दर्द हमारा ।
जहाँ मुखर हो हर हर गंगे, उसके मन को कैसे नापूँ ॥
कष्टों में धीरज धारण कर, स्वाभिमान हित लड़नेवाली ।
परिवार पर कष्ट आये तो, जब तक प्राण, करे रखवाली ।
माँ की महिमा गाऊँ कहाँ तक, जग जाने मैं बता न पाऊँ ॥
लक्ष्मी नारायण गुप्त
ग्वालियर (मध्य प्रदेश)