महामारी का आतंक
चीखती सड़को पे आज सन्नाटे है
दौड़ते रस्तों में आज वीराने है
सेकड़ो की हे भीड़ खामोश कहि
डर चारो और हे आज उजाले में
नारे सुनाई देते नही ,कोई विवाद नही है
सब घर में हे ,कोई इस वक़्त किसी का खास नही है
इस बीमारी को किसी ने नही देखा है
बीमारो के सात इसने मोत का खेल खेला है
दौलत नही रोटी माँगते दिखते है कई
चेहरे नकबो में कैद हे, हवा मे भी जहर देखते हे कई
जो निवाले देने कुछ लोग यहाँ आये है
कैमरों को पीछे पीछे लाये है
लोगों को महामारी मे भी धर्मो की लढाई करनी हे
आज बीमारी भी लाल हरे लिबाज़ में आई है
मेरी आँखों की स्याही से लिख रहा हु तुम करीब न हो इस लिए कलम के जरिये मिल रहा हू
पता नही ये मौत का वक़्त कब ख़तम हो जाये
सुकून का दौर कब तक न आये
मेरी यह इलटीज़ह है, घर से न निकलो
पता नही ये बीमारी कब किसी अपने को ले जाये