महानिशां कि ममतामयी माँ
महानिशा कि ममतामयी माँ—
जीवेश से जब भी उसके सहपाठी पूछते तुम्हारे पिता का नाम क्या है ?
जीवेश कुछ भी बता पाने में खुद को
असमर्थ पाता और सहपाठियों के बीच लज्जित होता लौट कर माँ
से सवाल करता माँ मेरे पिता कौन है? स्वास्तिका बताती भी तो क्या ?
वह भी हर बार जीवेश के प्रश्न को कोई न कोई बहाना बनाकर टाल जाती कभी आसमान कि तरफ संकेत देकर जीवेश को बताती कि उसके पिता ऊपर भगवान जी से मिलने गए है और कभी भी लौट कर आ जाएंगे कुछ देर के लिए जीवेश के मासूम मन कि जिज्ञासा शांत अवश्य हो जाती किंतु बार बार उसके मन मे अपने जन्मदाता पिता को देखने उनसे ढेर सारी बाते करने का मन करता ।
जब वह अपने सहपाठियों को अपने पिता के साथ उंगलियां पकड़ घूमते एव अभिमान से आल्लादित देखता तब तब बार बार माँ स्वास्तिका से प्रश्न करता माँ उसे कल्पनाओं और आशाओं के आश्वासन देती।
धीरे धीरे जीवेश बड़ा एव समझदार होने लगा और माँ के बचपन के नुस्खे अब काम नही आते जब भी जीवेश माँ स्वास्तिका से अपने पिता के विषय मे सवाल करता इधर उधर टाल मटोल करती लेकिन स्वास्तिक भी जीवेश के प्रश्नों से ऊब चुकी थी उसको यह नही समझ मे आ रहा था कि वह बेटे जीवेश को क्या बताए ?
क्या यह बताए कि उसकी माँ व्याही संतान जीवेश का पिता भद्रक उसे पाप के दलदल में धकेल कर चला गया?
लेकिन जीवेश कि जिद्द के समक्ष स्वास्तिका के समक्ष कोई रास्ता भी तो नही था अतः उसने निश्चय कर लिया कि वह जीवेश को सच बताएगी मगर जब भी वह बताने का प्रयास करती उसकी शक्ति जबाब दे जाती उसकी अन्तरात्मा उसे कोसती मगर उसके सामने कोई विकल्प भी नही था।
कहते है जब किसी भी प्रश्न का उत्तर नही मिलता है तो समय ही उसका उत्तर खोज लेता है।
जीवेश आठवी कक्षा में पढ़ रहा था विद्यालय के प्राचार्य ने विद्यालय में एक आदेश छात्रों के अनुपालन हेतु प्रसारित किया कक्षा के प्रति पांच छात्र एक एक दिन अपने पिता के साथ विद्यालय आएंगे और शिक्षकों कि उपस्थिति में प्रत्येक छात्र के बेहतर भविष्य के लिए उसके पिता के समक्ष उसकी प्रतिभा के सकारात्मक मजबूत पक्ष एव कमजोर पक्ष को प्रस्तुत कर उसके उत्कृष्ट उद्भव एव विकास के लिए सुझाव दिए जाएंगे ।
प्रधानाध्यापक के आदेशानुसार पांच पांच छात्रों को तिथियां बताई गई जिसके अनुसार उन्हें अपने पिता के साथ विद्यालय आना था जीवेश को चार दिन बाद अपने पिता के साथ विद्यालय जाना था ।
जीवेश ने माँ स्वास्तिका से जब विद्यालय का आदेश जीवेश ने सुनाया तब स्वास्तिका चार दिन बाद कि कल्पना कर अंतर्मन से कांप उठी वह सोचने लगी वह करे तो करे क्या ?
चार दिन बाद वह जीवेश के पिता को कहां से लाएगी ? वह सोचने लगी क्या करे ?
अचानक उसने निर्णय किया कि वह विद्यालय समयोपरांत स्कूल के प्रधानाध्यापक से मिलेगी और उनसे सच्चाई को बताएगी एव अनुरोध करेगी कि वह जीवेश को आश्वस्त करेंगे कि उसके पिता उनसे मिलकर जा चुके है किसी व्यस्तता के कारण वह जीवेश को साथ लिए बिना ही मिलने आए थे।
स्वास्तिका के मन मे यह भी विचार आता प्रधानाध्यापक जो छात्रों को सच का आचरण सिखाते है क्या वह एक अबोध छात्र से तथ्यों के इतर कुछ भी बताने का साहस क्यो करेंगे?
प्रत्येक संभावनाओं पर गहन मंथन करने के बाद स्वास्तिका ने दृढ़ होकर यह निश्चय किया कि वह प्रधानाध्यापक शौनक शंकर से अवश्य मिलने जाएगी चाहे जो भी हो उसने मन ही मन यह सोच लिया था कि एक न एक दिन तो बेटे जीवेश को सच्चाई का पता लगना ही है तो अभी क्यो नही ?
जिस दिन जीवेश को अपने पिता के साथ विद्यालय जाना था ठीक उसके एक दिन पहले मध्य रात्रि को जब जीवेश गहरी निद्रा में सो रहा था उसी समय वह महाभारत कि पात्र कुंती कि तरह स्वास्तिका सीधे प्रधानाध्यापक शौनक शंकर के घर पहुंची और दरवाजा खटखटाया प्रधानाध्यापक शौनक शंकर ने पत्नी करुणा से कहा देखो इतनी रात्रि को कौन आ गया ?
करुणा ने घर का दरवाजा खोला और देखकर हैरान रह गयी कि दरवाजे पर एक महिला खड़ी थी करुणा ने पूछा आप कौन?इतनी रात को कैसे ? स्वास्तिका ने बड़े शांत एव अनुनय भाव से करुणा से प्रधानाध्यापक शौनक शंकर से मिलने के लिए कहा करुणा ने उसे समझाने की पूरी कोशिश किया कहा इतनी रात को आपका इस तरह से आना और एक पुरुष से मिलने कि जिद्द उसी के पत्नी के समक्ष करना किसी नीति नियत संस्कृति संस्कार का अनुपालन नही हो सकता।
बहुत देर करुणा और स्वास्तिका में तर्क कुतर्क होते रहे अंत मे स्वास्तिका ने कहा बहन तुम भी एक माँ हो एक माँ कि विवशता तुमसे अच्छी तरह कौन समझ सकता है ?
स्वास्तिका कि यह बात सुनकर करुणा हतप्रद रह गयी उसने शर्त रखी कि शौनक शंकर एव उसकी वार्ता के बीच वह स्वंय भी उपस्थित रहेगी स्वास्तिका को कोई आपत्ति नही थी उसने सहमति दी करुणा अंदर गयी और पति शौनक शंकर के साथ कुछ ही देर में बाहर लौट आई ।
स्वास्तिका को देख शौनक शंकर ने पूछा तुम कौन हो ?और इतनी रात्रि को क्यो मुझसे मिलने कि हठ कर रही थी स्वास्तिका ने कहा मैं रूपांकर कर्ण कि बेटी हूँ जो आपके पिता जीवन के मित्र थे इतना सुनते ही शौनक बोल उठे क्या तुम स्वास्तिका हो ? स्वास्तिका ने कहा मैं वही अभागिन हूँ
शौनक ने पूछा इतनी रात को आने का कोई विशेष कारण स्वास्तिका ने उत्तर दिया भाई आपने प्रधानाध्यापक के पद से यह आदेश दिया है कि आठवी कक्षा के पांच छात्र प्रतिदिन अपने पिता के साथ विद्यालय में आए जिससे कि विद्यार्थियों के भविष्य के लिए उचित सुझाव उनकी क्षमता एव प्रतिभाओं के आधार पर उनके पिता को दी जा सके ।
माँ को अपने बुलाया नही है यदि बुलाया होता तब भी हम नही आ सकती थी क्योकि मुझे दुनियां बदचलन समझती है क्योकि मैं बिंनव्याही माँ हूँ ।
करुणा बड़े ध्यान से स्वास्तिका कि बातों को सुनती जा रही थी उसने पति शौनक से प्रश्न किया सामने खड़ी औरत के विषय मे आप भली भांति जानते है अब आप बताए कि इस माँ कि क्या विवशता है ?
मैं भी माँ हूँ माँ धरती कि तरह शांत गम्भीर तो समंदर कि तरह गहरी अंर्तमन कि होती है माँ निर्मल निश्चल अविरल प्रवाह होती है जिसकी धरा धारा कि कोख से ईश्वर भी जन्म लेता है तो इस माँ के समक्ष कौन सी ऐसी विवसता है ?जो इसे पल पल घुट घुट कर जीने को विवश करता है।
स्वास्तिका ने कहा भईया आज आप भले ही खून के रिश्ते के भाई न हो फिर भी मानसिक रिश्ते से इस बहन कि सच्चाई अपनी पत्नी को अवश्य बताए जिससे कि कम से कम एक माँ नारी को मेरी वेदना कि अनुभूति का अनुभव तो हो करुणा मेरी अंतर्मन वेदना का साक्ष होगी और वही निर्णय भी करेगी कि इतनी रात आपके दरवाजे मेरा आना उचित है या अनुचित?
शौनक कुछ देर शांत रहने के उपरांत वह अतीत कि यादों में खो गए और उनकी यादों कि परतें ऐसी खुलती गयी जैसे कल कि ही बात हो शौनक शंकर गम्भीर होते हुए बोले करुणा यह स्वास्तिका है हम और स्वास्तिका एक ही साथ गांव के पाठशाला एव आज जिस जूनियर हाई स्कूल का मैं प्रधानाध्यापक हूँ में साथ साथ पढ़े है आठवी कक्षा के बाद भी इंटरमीडिएट तक हम स्वास्तिका साथ साथ ही पढ़ते थे उसी समय कि बात है स्वास्तिका के घर इसके दूर के रिश्ते का रिश्ते में बहनोई भद्रक अक्सर इनके घर आता जाता था रिश्ता होने के कारण उसके घर बाहर किसी भी व्यक्ति को उसके चाल चलन पर कभी कोई शक नही होता था लेकिन भद्रक था बहुत निकृष्ट व्यक्ति उसकी निगाह सिर्फ रूपांकर कि एकलौती बेटी एव उनकी सम्पत्ति पर थी उसने आते जाते कब स्वास्तिका को अपने जाल में फंसा लिया पता ही नही चला स्वास्तिका माँ बनने वाली थी जब यह सच्चाई घर वालो को पता चली तब रूपांकर एव जोगेश्वरी स्वास्तिका के माता पिता स्वंय भद्रक के घर गए और बेटी के विवाह के लिए अनुनय विनय प्रार्थना निवेदन जो भी सम्भव था किया लेकिन भद्रक तो दुष्ट ही नही दानवी प्रबृत्ति का था उसने घर आए स्वास्तिका के माता पिता कि हत्या कर दी और अपने भी माता कि हत्या कर दिया पिता उसके पहले ही मर चुके थे और रूपांकर और जोगेश्वरी से जबरन उनकी सारी जायदात अपने नाम मारने से पहले लिखावा लिया इतना सब होने के बाद उसने पूरी घटना को ऐसा रंग दे दिया कि कानून और पुलिस भी हैरत में पड़ गयी ।
पुलिस के समक्ष उसने बताया कि उसकी मां और रूपांकर जोगेश्वरी कि मृत्यु बेटी के बिनव्याही माँ बनने के सदमे से हुई जो उस बेचारे पर किसी और के पाप को अपनाने का दबाव बना रहे थे और उसकी माँ संतोषी अपने रिश्तेदारों के घर पर मरने के कारण सदमे से जबकि सच्चाई यह थी कि भद्रक ने ही रूपांकर जोगेश्वरी के सारी सम्पत्ति लिखने के बाद स्वास्तिका को अपनाने का आश्वासन दिया तब रूपांकर जोगेश्वरी ने बेटी के भविष्य के लिए जब अपनी सारी संपत्ति भद्रक के नाम कर दिया तब उसने उनको संखिया धोखे से दे दिया और जब माँ ने विरोध किया तो उसका गला दवा कर मार डाला फिर
रूपांकर और जोगेश्वरी के शव उनके गांव वाले लेकर गांव आएं और उनका अंतिम संस्कार गांव वालों ने मेरे पिता जी कि देख रेख में किया ।
उधर भद्रक जब अपने गांव वालों के साथ अपनी माँ कि अर्थी लेकर जा रहा था तभी उसको रास्ते के पत्थर से ठोकर लगी ठीक उसी समय वायुमंडल में आवाज गूंजी बेटा तूने जो भी किया वह तेरी नासमझी थी या समझ यह तो ईश्वर ही निर्धारित करेगा तुझे मैंने मानव के रूप में जन्म दिया तू दानव कैसे बन गया यह भी ईश्वर ही बताएंग लेकिन मैं माँ हूँ कही तुझे पत्थर से लगे ठोकर से कोई चोट तो नही लगी मेरी आत्मा इस वेदना को लेकर कैसे अंतिम यात्रा को जा सकती है बेटे तू ठीक तो है न ? अर्थी में जितने लोग सम्मिलित थे सभी ने उक्त शब्द सुने और महसूस किया जैसे अर्थी पर सोई भद्रक कि माँ बेटे भद्रक को पत्थर से ठोकर लगने से दिवगंत आत्मा में भी व्यथित है। और सभी ने एक स्वर में (कहा कुपुत्रो जायत्रे क्वचिदपि कुमाता न भवति)
सभी श्राद्ध कर्मो के बाद भद्रक ने रूपांकर कि जमीनों को एक एक करके बेचता चला गया स्वास्तिका ने इसी बीच एक सुंदर बालक को जन्म दिया जिसके बाद गांव वालों ने स्वास्तिका को दुराचारिणी व्यबिचारिणी चरित्रहीन कलिंकनी जाने क्या क्या कह कर गांव से ही बाहर कर दिया सामाजिक विरोध में किसी एक व्यक्ति कि सकारक्तमता सच्चाई कि आवाज भी दब जाती है वही स्थिति मेरे पिता जीवन कि थी वह स्वास्तिका कि सच्चाई को जानते थे लेकिन उनकी भी कोई सुनने वाला नही था।
स्वास्तिका अपने नवजात बच्चे को लेकर कुछ दूरी पर गांव कि नदी के किनारे शमशान से कुछ दूर एक पेड़ के नीचे झोपड़ी बना कर रहने लगी और अपने बच्चे को पालती अमूमन शमशान कि तरफ अब भी गांव में जाना अपशगुन माना जाता है तो वहाँ गांव का कोई जाता नही था ।
स्वास्तिका ने पास के गांव के छोटे छोटे बच्चों को एकत्रित कर उन्हें पढ़ना शुरू किया पहले तो उसे कुछ विरोध का सामना करना पड़ा लेकिन जब गांव वालों को उसकी नियत कि स्पष्टता कि जानकारी हुई तब गांव वाले उसे अनाज लकड़ी दूध आदि दे देते जिससे उंसे अपने बच्चे को पालने में परेशानी नही होती ये वही जीवेश है जो मेरे विद्यालय में कक्षा आठवी का छात्र है ।
पति के द्वारा स्वास्तिका कि सच्चाई सुनकर करुणा कि आंखों से अश्रुधारा फुट पड़ी वह बोली बहन तुम माँ नही साक्षात माँ के नौ रूपा कि सत्य हो तुम्हारा दर्शन पाकर करुणा धन्य हुई महानिशा में आपका आगमन मेरे एव मेरे पति के किसी पूर्व जन्म के शुभ कर्मों का परिणाम है।
अब बोलो बहन क्या चाहती हो स्वास्तिका बोली बहन करुणा मैं चाहती हूँ कि शौनक जी जीवेश को अपने पिता संग विद्यालय में लाने के नियम से मुक्त कर दे।
शौनक बोले बहना भद्रक दानव है और रहेगा लेकिन तुम मेरी बहन थी और हो इस नाते मैं जीवेश का मामा ही तो हुआ तुम निश्चिन्त होकर जाओ मैं भगवान श्री कृष्ण कि तरह जीवेश को हर कठिन मार्ग पर पथ प्रदर्शक रहूंगा।
तुम जैसी माताओं से भारत भूमि धन्य है तुम जैसी माताओं से माँ कि महिमा है तुम जैसी माँ से माँ कि पहचान परिभाषा का सत्यार्थ है तुम जैसी नारी गौरव ने ही माँ के पवित्रता को शाश्वत सत्य बनाए रखा है।
माँ कि महिमा गरिमा महत्व स्वास्तिका से शुरू होती है और माँ को गौरवान्वित करती है हे बहना मेरे ही कुछ पुण्य शेष थे जिसके कारण मुझे अपनी कोई बहन न रहते हुए स्वास्तिका जैसी बहन मिली बहन आप निश्चिंत होकर जाओ ।
स्वास्तिका और करुणा दोनों के ही नेत्रों से अविरल अश्रु धार बह रही थी।।
कहानीकार -नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश।।