– मर चुकी इंसानियत –
जो घटित हुआ, वो सब के सामने घटा
चूंकि , अपना नहीं था मरने वाला
चीख चीत्कार सुनी अनसुनी कर दी
कानों में जैसी बेदर्दी भर ली
आँखों के सामने गुजरा वो क्रूर लम्हा
तभी तो आज इंसानियत भी मर गयी !!
काश ! वो मरने वाली खुद की औलाद होती
तो टुकड़े टुकड़े कर देता उस वक्त देखने वाला
चाकू से वार करते एक एक ने देखा
पत्थर से सर फोड़ते भी सब ने देखा
कहाँ मर गया था जमीर देखने वालों का
तुम तो सामने थे फिर इंसानियत क्यूँ मर गयी ??
यह जरूरी नहीं कि वो हिन्दू है , या मुसलमान
जिस ने बाद में देखा तो उठ गया दिल में तूफ़ान
खुद को कोसने लगा दिल मेरा देख के हैवान
ओ इंसान तू क्यूँ बन रहा है , हर वक्त हैवान
किसी के दिल का टुकड़ा है वो, जो मर रहा
कैसा इंसान है तू , कैसे इंसानियत भी तेरी मर गयी ??
अजीत कुमार तलवार
मेरठ