ममता
माँ तेरी सकुचाई आँखें
झूठमूठ मुस्काई रे।
तेरी भीगी पलकों की है
व्यथा न मुझको भायी रे।।
घर का ऑंगन तेरी ही
पायल से गुनगुन करता था।
और तुम्हारे गीतों पर
कोना-कोना कुछ कहता था!
इन हाथों ने जीवन भर
पर-सेवा करने की ठानी,
है कुटुंब का बच्चा-बच्चा
करता बहुत बड़ाई रे।।
तेरी भीगी पलकों की है
व्यथा न मुझको भायी रे।।
चौक पूर के बरगद पूजन
कर, तू देवी सी लगती।
व्यंजन से घर ऑंगन सजता
खिलते मन, जब तू दिखती।
लोट-लोट तेरी बाॅंहों में
करते हम सब मनमानी।
अद्भुत लीला शैशव की वो,
मन ने कहाॅं भुलाई रे।
तेरी भीगी पलकों की है
व्यथा न मुझको भायी रे।।
विस्मृत करके सारी बातें
भूल गई माॅं तू सबकुछ?
सिरहाने बैठे हम सब तू,
याद किसे करती चुप-चुप?
मुॅंदी ऑंख की कोरों से
अनवरत मिले बहता पानी।
मूक बैठ, बाबूजी फफकें
विपदा कैसी आई रे।
तेरी भीगी पलकों की है
व्यथा न मुझको भायी रे।।
स्वरचित
रश्मि लहर,
लखनऊ, उ.प्र.