*** मन-मोर ***
मन-मोर ललचाए किस ओर
यह मोर मन जान ना पाए है
आतप नहीं ग्रीष्म को ऐसो
जैसो तोर समायो हिया में
अग्नि अगन लगाए जिया में
जब दूर तूं होवत है हम से
स्नेह जल-माह बसी मनमीन
फिर क्यों जल जावे हिया में
जल बिन मीन या आवे समझ में
पर जल होत क्यों जल जावे हिया है
पापी-प्रीतम यातो बतादे या बात
क्यूं ना आवे मोर जिया में
भूल गयो या बात सही है
प्रीत लगा के प्रीत भुला दी
कैसे तोहे निकालूं हिया से
उलझ्यो है मन छवि बीच तिहारी
सुलझ्यो ना चाहत या बात निराली
केसों ही समझाय हिया ने
बात ना माने एक जिया की
रटन लगी है बस एक पिया की
जैसे चातक स्वाति बूंद को चाहत
बस एक लगी है प्यास पिया की
दरस दिखा दो बस एकबार पिया
रस की चाहत नही सोंह तिहारी
बात हिये ते कहे तोरी पियारी
मन-मोर ललचाए किस ओर
यह मोर मन जान ना पाए है ।।
?मधुप बैरागी