मन का समंदर
मन का समंदर
समंदर की लहरें कब हवा हो जाती है
पता ही नहीं चलता कब धुआं हो जाती है
ओस की बुंदों की तरह कुछ पल को दिखतीं हैं यहाँ मगर कब फुर हो जाती है वो पलक आंखों से, पता नहीं चल पातीं है….
लहरों की उमंग का तकाजा तो तरंगों में सजाती है
जो परवान चढ़ के गुमसुम खुद में उफान लाती हैं
बस है समाया सब्र का उसुल जो दबा कर रखतीं है जो इम्तिहान है हदी की तो अब तक शांत हैं मेरा समंदर
वरना कब का कहर ढा देतीं…
बस हूँ मैं मौजां हस्ती!मेरे समंदर में, तू परेशान न कर
शातं लहरों से किनारा छुती हुं आज मैं धीरे से चलकर
जो आया है शौक से मिलने वो समाया मुझमें देखकर
वरना जो जला हैं मुझमें मुझे देख कर उसे भी अंतर से किनारा किया मेरे समंदर ने फैंक कर….
मैं शांत समंदर सा हूं हस्ती सब समाया है मुझमें
अर्पण तर्पण समर्पण, वो भाव समा सब मुझमें
मैं देखकर चलता हूँ यहाँ,हालात की हवा है किधर
जो बहकाती है मुझे युं छु छु कर आज भी, की कहीं मैं भी तुफां सा बवंडर ला दु मुझमें…..
मगर मैं समंदर हूंँ हस्ती; नदी नहीं जो युं मचल जाऊं
थोडे़ से आवेश मैं आ आज, मैं नदी सा होश खो जाऊँ
मैं तुम सा नहीं जो सब को अपनें मैं में बहाके ले जाऊं
मैं समंदर हूं अपनें मौज का हस्ती आज!जो देखकर सब में मैं समां जाऊं…
स्वरचित कविता
सुरेखा राठी