*बदलना और मिटना*
बदलना और मिटना
दो शब्द! एक मै और मै, वो बदलना चाहिए
निकले जो भाव अनर्थ के वो सार मिटना चाहिए
एक सूरत वक्त की वो करवट बदलना चाहिए
जो बैठी किनारे गंदगी आज वो मिटना चाहिए…
बनी जो कलह अब-तक वो सीरत बदलना चाहिए
निर्मलता की इस गगां का वो जहर मिटना चाहिए…
मानस मन की मनसा का वो सुर बदलना चाहिए
जिसमें हो अपनापन बस ऐसा बैर मिटना चाहिए…
कलुषित हुए सब बालमन वो शब्द बदलना चाहिए
बस हो भाषा सब शहद वो ऐसा खार मिटना चाहिए..
हो आतुर शब्द एक वो”हस्ती” कलमा बदलना चाहिए
कतरा हुए शब्द का हर वो आह तलब मिटना चाहिए..
जिंदगी का तजुर्बा अडिग रहे वो सुर बदलना चाहिए
गफलत की आग में भी बस वो झूठ मिटना चाहिए…
मासुमियत चेहरों के वो झूठ नकाब बदलना चाहिए
जो कहते!जनाब हैं हम आज के वो मैं मिटना चाहिए
लिखें जो कलम की नोंक वो आज बदलना चाहिए
कतरा कतरा शब्दकोश का वो अनर्थ मिटना चाहिए.
मेरे अतीत पे चढ़ी काई का रंग वो नेश बदलना चाहिए
हुकूम है क्या आज बस वो भेद मिटना चाहिए…
आंखें चढ़े तीरे भाव का वो आज रगं बदलना चाहिए
जो हुजूम में हो खड़े आखं सब!वो तैश मिटना चाहिए।
स्वरचित कविता
सुरेखा राठी