“मन का रावण नहीं जला”
परम्परा के नाम पर
खुद को हमने खूब छला,
खूब जलाया मगर
मन का रावण नहीं जला।
धर्म-कर्म के नाम पर
जमकर दुकान खुले,
आशाराम-रामरहीम सा भेड़िये
सारी मर्यादा भूले,
सन्त बनकर भेड़ियों ने
लोगों को ग़ज़ब छला,
खूब जलाया मगर
मन का रावण नहीं जला।
कहीं चढ़ रहे करोड़ों रुपये
कहीं बचपन मर रहा,
आज भाई की छाती भाई ही
रोज छलनी कर रहा,
पराये बनकर अपने ही
रेते अपनों का गला,
खूब जलाया मगर
मन का रावण नहीं जला।
– डॉ. किशन टण्डन क्रान्ति
भारत भूषण सम्मान 2022-23 प्राप्तकर्ता
दुनिया के सर्वाधिक होनहार लेखक के रूप में
विश्व रिकॉर्ड में नाम दर्ज।