मनुष्य को मनुष्य सा संवार दो या। । । । । ।
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आ शिव मैं तेरा श्रृंगार कर दूँ।
सुलझाकर तेरी जटाओं को
गंगा की अजस्र हर धार धर दूँ।
चन्द्रमा को सजा किरीट सा
सारा लौकिक सौन्दर्य बेकार कर दूँ ।
ग्रीवा में डाल विषदंत भुजंगें
सृष्टि के विषपायी हो
कथन यह साकार कर दूँ।
आ शिव मैं तेरा श्रृंगार कर दूँ।
नग्न देह पर भस्म लपेटूं
व्याघ्र चर्म से कटि को ढंककर
समाधित्व को तैयार कर दूँ।
सारी उर्जा अन्तरिक्ष का
भर ललाट में
सृष्टि,स्रष्टा सारे कुछ का
सच्चा सा चौकीदार कर दूँ।
बिल्व पत्र में भरी औषधि
भंग,धतूरे में छुपा हुआ जो
खोज-बीनकर नया नया
आविष्कार कर दूँ।
नाद प्रथम डमरू में तेरे
दूँ भर मैं
सप्त स्वरों का मधुर ध्वनि में
वह मैं होऊं और इसे प्रसार कर दूँ।
आ शिव मैं तेरा श्रृंगार कर दूँ।
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