मदिरा
चर्चा में सुना तुमको जैसी, दुकानों में साथी तुम ऐसी,
तुझे मिलने को मन बना लिया, तेरा इधर-उधर से पता लगा लिया।
जहाँ भरी हुई एक महफिल थी, तू गले लगी कितनों से थी,
देखा तो रंग रंगीली हो, छुआ तो कुछ शर्मीली हो ।
गले लगाने की सोची, शायद अंदर से हो मीठी,
सूंघ तो कुछ बू थी ऐसी, बिन नहाये भादों के जैसी।
मन घृणा से भर गया मेरा, ना पाया जैसा नाम था तेरा,
जो करता है तुझसे प्यार, उसी का धन और तन तू करती बेकार।
इसलिए “संतोषी” जनहित की खातिर, “ऐ मदिरा” करता है तेरा बहिष्कार।
साकी जो तेरे दर पर आए, जीवन है उसका धिक्कार।।