मत कुरेदो घाव मन के
575• मत कुरेदो घाव मन के
स्वर्ग-सी घाटी के वासी, हम भी कभी कश्मीरी थे
हम बागों के मालिक थे, केशर की खेती करते थे।
नज़र लगी दरिंदों की जब थी,पाकिस्तानी चूहों की
मत कुरेदो घाव मन के, कि हमपर क्या गुजरी थी।
परिवार जलाए जाते थे,अस्मत औरत की लुटती थी
खुली चुनौती थी भागो सब,खून-खराबा, लूटपाट थी
नग्न नृत्य, हिंसा का तांडव, कहर मनमाना बरपा था
खुली डकैती, ब्लात्कार था,जान बचाना मुश्किल था।
मजहबी वहशीपन था,साजिश थी बेशक शैतानों की
वक़्त की सरकारें चुप थीं, उनकी मिलीभगत जैसे थी
अखबार, प्रेस थे कहाँ मरे, वाणी सारी मौन थी क्यों?
जब लगे मजहबी इश्तिहार, मुंह सबके सिले थे क्यों?
जिंदा थे सिर्फ तैमूरी लोग,और उनके तुगलकी फरमान
भय,आतंक के पहरे में था, घमासान और भागम-भाग मत कुरेदो घाव मन के आज, कत्ले-आम मचा था जो
थी इंसानियत जब शर्मसार,संविधान सुप्त पड़ा था क्यों?
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–राजेंद्र प्रसाद गुप्ता,मौलिक/स्वरचित,18/07/2021•