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1 May 2023 · 1 min read

****मजदूर कितना मजबूर है****

****मजदूर कितना मजबूर है****
***************************

ये जो बेबस सा दिखता मजदूर है,
भाग्य के हाथों कितना मजबूर है।

चाहे कोई भी तीज त्योहार आए,
कुदाल के संग हाजिर जी हुजूर है।

रोजी रोटी की प्रयत्नों में है उलझा,
ख्वाबों का शहर वास्तव में दूर है।

चौराहे पै खड़ा दिहाड़ी की आस में,
वापिस खाली हाथ लौटता जरुर है।

न करता किसी से कोई भी उम्मीद,
भूखे पेट सोना फिर भी मगरूर है।

अर्ज में कर्ज बोली में वही दर्द भरा,
दिन भर की वो थकावट में चूर है।

झोली फैला कर नहीं मांगता भीख,
इतना तो उसमे भी आखिर गरुर है।

सरकारी नीतियां ढकोसले मनसीरत,
बड़े चर्चे पर असल में दिल्ली दूर है।
*****************************
सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)

Language: Hindi
238 Views
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