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31 Mar 2024 · 1 min read

तारीफों में इतने मगरूर हो गए थे

तारीफों में इतने मगरूर हो गए थे
जख्म भी हमारे नासूर हो गए थे

जब हम जमाने को खोजने निकले
हम खुद के अंदर से ही खो गए थे

लोगों के मुखौटों में ऐसे उलझे
हम भी पत्थर के हो गए थे

जब हमारी नब्ज टटोली गई
हम अपने ही अंदर सो गए थे

✍️कवि दीपक सरल☑️

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