मंजूर था
1- शीर्षक- मंजूर था
पतझड़ में पत्तों का झर जाना
शायद यही मंजूर था।
खो के अस्तित्व खुद में
सिमट जाना
शायद यही मंजूर था।
कभी जो सजते थे
शाखों पर,
कलियों की मुस्कान
बनकर
तूफ़ां में बिखर जाना
शायद यही मंजूर था
हंसती आंखों में
है कितनी अनकही सी
कहानी
भावों का बरबस
बरस जाना
शायद यही मंजूर था
अधूरी सी ज़िन्दगी
का बोझ
उठाने पर
उफ भी न निकले
शायद यही मंजूर था।
-शालिनी मिश्रा तिवारी
( बहराइच, उ०प्र० )