‘भोर’
भोर आई भोर आई,खग चले नभ ओर।
मच रहा है घोंसलों में, नभचरों का शोर।
भानु की आई सवारी, हो रही जयकार।
शंख बजते मंदिरों में , पुष्प सजते द्वार।।
ओस ने भी ठान ली है, अब चलूँ सब छोड़।
चल पड़ी है वह गगन को, सूर्य को कर जोड़।
दल कमल खिलने लगे हैं, देख स्वर्णिम धूप।
मदन भी मोहित हुए हैं, निरख रूप अनूप।।
हलधर चले हल वृषभ ले, जोतने निज खेत।
पवन की शैतानियों पर, नृत्य करती रेत।
पवन सुरभित सुमन सौरभ,भर गया उल्लास।
धार में निरझर नदी की, झलकता है हास।।
श्रमिक भी घर छोड़करके ,चल दिए निज काम।
भक्त पूजन कर रहे हैं, सुमिर हरि का नाम।
पठन को -बालक चले हैं, पाठशाला -ओर।
ईश वंदन का कर रहे, गान पूरे जोर।।
-गोदाम्बरी नेगी