भेद नहीं ये प्रकृति करती
सुन्दर गगन चुम्बी इमारतों ने,
मन मेरा कितना मोह लिया,
स्वच्छ और सुन्दर उपवन संग सजा है,
प्रकृति का आशीर्वाद मिला है।
निस दिन मानव भू मंडल में,
करता है उत्पात यहाँ,
कलयुग में क्या है छुपा रहा जग से,
वातावरण गरमा रहा है यहाँ ।
भेद खुला कूकृत्य किया जो,
एक छोर में झुग्गी झोपडी है बड़ा,
मलिन बस्ती प्रकृति की छाँव में,
कचरा नाला अभिशाप से भरा हुआ।
भेद नहीं ये प्रकृति करती,
मानव में इतना अंतराल कैसा?
नहीं मिटी ये खाई जल्द ही,
आपदा होगी प्रभावी हम सभी पे।
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बुद्ध प्रकाश,
मौदहा हमीरपुर।