भय की शिला
चित्त को अपने लोह बनाकर,
भय की शिला को तोड़ दे आज ।
खुलने दे वो गिरह
जो कब से है मन के भीतर
कश्मकश-सी, कलह-सी
जो डराती हैं, रुलाती भी है
जो गैरत लम्हों को ज़िन्दा रखे है,
अतीत की यादों को इकट्ठा किए है,
जहाँ उमंगों से भरा कोतुहल,
भिनिन-भिनिन सुबह में
पक्षियों का कलरव,
बिना सुने हुए अभी भी
एक दौर गुजर रहा है,
इस दौर को अब भूल जाने दे,
चाहें गम नज़र से उतर जाने दे आज ।
रात की झिलमिल को उतार
देख के कितना उजाला फैला है
इस उजियारे में एक नई राह खोज
पुराने रास्तो को छूट जाने दे,
फिर फैला अपनी बाजुएँ
और महसूस कर वो हवाएं
जो तुझे कहीं दूर धकेलती है,
उस अवसाद के भंवर से
जो तुझे भरमाये रखती है,
ऐसी उलझनों को सुलझ जाने दे
खुद से खुद को बतियाने दे आज।
चित्त को अपने लोह बनाकर,
भय की शिला को तोड़ दे आज ।