बेशक थोड़ी मजबूर हूँ, पर हाँ मैं भी एक मजदूर हूँ ।
सौ में नब्बे आदमी इस दौर में मजबूर हैं जो मजदूर है
बांकी जो भी बचे वो सेठ हैं, जो बड़े मगरुर हैं।
कोई हसुआ-हथौड़ा लिए मेहनत की राह पे चल रहा
कोई फाईलों के बीच दुविधाओं के जाल में निस दिन पल रहा।
किसी का बचपन फ़ुटपाथ के गोद में मचल रहा
कूड़े-कचरे के ढेर में कहीं जिंदगी की ताप से कोई जल रहा।
किसी की जबानी भट्टियों की आग में मोम सा गल रहा
बुढ़ापा किसी का खेतों की मेड़ पर ही शाम सा ढल रहा।
कोई सबनमी होठों के झनकार से पेट की आग मसल रहा
कोई सरकारी दफ्तरों में सुबह से लेकर शाम तक बिकल रहा
हर तरफ मजदूर दिवस के नाम पे नारों का बस शोर है
मजदूरों के हक़ की बात तो बस साहेब के जुमलों में ही उछल रहा।
लोकतंत्र में, जन गण मन- ‘अधिनायक’ के ठोकरों में पल रहा
अधिनायकों को हर हाल में वो खल रहा जो उबल रहा
सोचिए सौ में नब्बे आदमी जब मजदूर और मजबूर हो
एक साथ हुंकार उठे तो कैसे सिंहासन हिल न उठे जो अभी मगरुर है
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02-05-2019
…सिद्धार्थ …