बेरोजगार
कल उन्होंने हमसे कहा और कितना पढ़ेगा तू
किताबों पर और कितना झुकेगा तू
क्या फायदा तेरी ऐसी पढ़ाई का
जिसमें 2 जून की रोटी का
पैसा ना हो इकट्ठा
जब तक दौलत ना होगी
तेरी किताबों की कोई अहमियत ना होगी
हम भी गंभीर मुद्रा में थे
क्योंकि बात तो सच थी
डिग्रियां भी हैं किताबें भी हैं
पढ़ने की लगन भी है
नौकरी नहीं और यह सच्चाई भी है
एक बार फिर हमने खुद को समझाया
उठाई पेंसिल और लिख डाला
मन का बोझ उतार डाला
नौकरी नहीं तो क्या हुआ
कुछ तो हुनर हमें भी
इन्हीं किताबों से मिला
और हमने खुद को
बेरोजगार फिर लिख डाला।