बेटा
सोचता हूं कि अब कुछ बेटों पर भी लिखा जाये——-
घर की रौनक है बेटियां, तो बेटे हो-हल्ला है,
गिल्ली है, डंडा है, कंचे है, गेंद और बल्ला है,
बेटियां मंद बयारो जैसी, तो अलमस्त तूफ़ान है बेटे,
हुडदंग है, मस्ती है, ठिठोली है, नुक्कड़ की पहचान है बेटे,
आँगन की दीवार पर स्टंप की तीन लकीरें है बेटे,
गली में साइकिल रेस, और फूटे हुए घुटने है बेटे,
बहन की ख़राब स्कूटी की टोचन है बेटे,
मंदिर की लाइन में पीछे से घुसने की तिकड़म है बेटे,
माँ को मदद, बहन को दुलार, और पिता की जिम्मदारी है बेटे,
कभी अल्हड़ बेफिक्री, तो कभी शिष्टाचार, समझदारी है बेटे,
मोहल्ले के चचा की छड़ी छुपाने की शरारत है बेटे,
कभी बस में खड़े वृद्ध को देख, “बाउजी आप बैठ जाओ” वाली शराफत है बेटे,
बहन की शादी में दिन रात मेहनत में जुट जाते है बेटे,
पर उसकी विदाई के वक़्त जाने कहा छुप जाते है बेटे,
पिता के कंधो पर बैठ कर दुनिया को समझती जिज्ञासा है बेटे,
तो कभी बूढ़े पिता को दवा, सहारा, सेवा सुश्रुषा है बेटे,
पिता का अगाध विश्वास और परिवार का अभिमान है बेटे,
भले कितने ही नादान पर घर की पहचान है बेटे।