बेकाबू संवेनं
बेकाबू संवेनाएँ
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है बरसात बरसती
झम झम झम झम
भीगते हैं गोरी के
गोरे गोरे अंग अंग
शीत स्वाति बूँद से
महकते तन बदन
लाल अंगारों सम
दहकते अंगप्रत्यंग
यौवन की पीड़ा में
काबू में नहीं मन
प्रेमपींघ चढाने को
विचलित व्यथित
लालायित होता है
गौरी का गौरांग
अनियंत्रित सांसे
चलती गर्म गर्म
बहकी बहकी सी
वस में न तन मन
जियरा है धड़के
सीना भी भभके
ढूंढता रहे सहारा
सोनजुही सी बन
मनसीरत मन में
ज्वारभाटा भांति
उठती भावनाएं
बेकाबू सी होती
मधुर संवेदनाएं
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)