* बेकस मौजू *
डा . अरुण कुमार शास्त्री
एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त
* बेकस मौजू *
खामोशियों को गर जुबान मिल जाती है
एक जन्नत जमींन पर उभर आती है
उसको देख कर वेबस वो खूब हँसा
जैसे शिकारी के पन्जे में जान फडफडाती है
मुझसे कब् देखा गया तेरा अशान्त मन
सादगी मेरी मुझको यही बताती है
फूल था चमन का किसी के गुल्जार
मेमना बना दिया बेकस बेक्दरी से
कदर कसाई क्या जाने एक जान की एय खुदा
उसको तो बस हर पल छुरी चलानी आती है
किस तरहा बन ठन् के निकलते है हुस्न वाले
इनको कब् किसी गरीब पर दया आती है
बहुत गिड़गिड़ाया था ये अबोध उसकी चौखठ पर
एक बार भूली तो भूली फिर कहाँ हसीनों को हया आती है