“बुलबुला”
ये मोहब्बत नहीं तो क्या है
उनका ये मुस्कुराना
दिल से ही पूछ लीजिए
हम क्यों तुम्हें बताएँ,
गुनाहों के साये में जो
ये जिन्दगी गुजरी है
रुकी रही आँखों में
बरसी ये फिर घटाएँ
खुद को ही मिटाकर
किसी की जिन्दगी बचा लें
आती है मेरे कानों में
अब भी किसी की सदाएँ
पानी का बुलबुला है
इंसान की ये जिन्दगानी
तरसी है इन्तजार की घड़ियाँ
अब दे भी दो दुआएँ।
डॉ. किशन टण्डन क्रान्ति
साहित्य वाचस्पति