*बुरे फँसे कवयित्री पत्नी पाकर (हास्य व्यंग्य)*
बुरे फँसे कवयित्री पत्नी पाकर (हास्य व्यंग्य)
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“अजी सुनते हो ! मैंने चाय के लिए पानी रख दिया है । अब तुम दूध ,पत्ती ,चीनी डाल लेना ।”-यह श्रीमती जी की आवाज थी ।हमने कहा “क्यों ? अब कौन सा काम याद आ गया जो चाय अधूरा छोड़ कर चली गईं ?”
श्रीमती जी ने कहा “बस ,चाय बनाना ही शुरू किया था कि कविता की एक सुंदर-सी लाइन दिमाग में आ गई । अब उसी को बैठ कर पूरा कर रही हूँ।”
अब आप समझ ही गए होंगे कि श्रीमती जी रसोई से हटकर अपने कविता-कक्ष में चली गई हैं और जब तक उनके दिमाग में बिजली की तरह कौंध गई कविता की एक पंक्ति संपूर्ण कविता का आकार नहीं ले लेगी ,वह रसोई में नहीं आ सकतीं। सारा खामियाजा हमें ही भुगतना था । कहां तो हम सोच रहे थे कि आराम से कुर्सी पर बैठकर मेज पर टांग फैला कर एक कप चाय पिएंगे और कहां अब चाय भी खुद बनानी पड़ रही है और श्रीमती जी को भी उनके कविता-कक्ष में जाकर एक कप चाय देनी पड़ेगी । चाय पीने का सारा मजा ही किरकिरा हो गया ।
बंधुओं ! कवयित्री के पति को किस प्रकार से झेलना पड़ता है ,यह कोई भुक्तभोगी ही जानता है । सौ में किसी एक-आध घर में इस तरह की समस्या आती है। मगर जब यह समस्या पैदा हो जाती है तो बड़ी गंभीर होती है । हम तो रोजाना भगवान से प्रार्थना करते हैं कि श्रीमती जी को कम से कम खाना बनाते समय कविता लिखने की प्रेरणा प्राप्त न हो जाए अन्यथा हमारा वह दिन उपवास में ही बीतेगा ।
एक दिन तो बर्तन मांजते – मांजते उन्हें जूठे बर्तनों में भी काव्य-रचना की प्रेरणा मिल गई । तवा ,कुकर ,थाली ,कटोरी सब आधे मँजे पड़े थे लेकिन श्रीमती जी को जब काव्य चेतना जागी तब वह सब कुछ छोड़ कर पुनः अपने कविता-कक्ष में चली गईं। वहीं से हमें आदेश मिला “अब कविता की प्रेरणा जाग उठी है । बाकी सब काम तुम कर लो ।” परिणामतः श्रीमती जी ने अपनी कविता बनाई और हमने बर्तन मांजे।
कई बार हमारी सोते-सोते नींद खुल जाती है तो पता चलता है कि श्रीमती जी बिस्तर पर नहीं हैं। बगल में कुर्सी पर बैठी हैं, हाथ में डायरी है और कविता लिख रही हैं। हम आश्चर्यचकित होकर पूछते हैं ” यह रात में ढाई बजे बिस्तर से उठ कर कविता लिखने की क्या तुक है ? ”
श्रीमती जी मुस्कुराते हुए जवाब देती हैं ” कविता में तुक नहीं होती । जब भी मन में विचार जाग उठते हैं ,तब कविता बनने लगती है और उसी समय उसे डायरी पर उतारने का नियम होता है ।”
“सुबह उठकर भी तो तुम इस कविता को लिख सकती थीं ?”
श्रीमती जी मुस्कुराते हुए जवाब देती हैं ” तुम कविता की पेचीदगियों को नहीं समझोगे । काव्य चेतना का स्फुरण जिस क्षण होता है ,उसी क्षण उसे लिपिबद्ध कर दिया जाए तब वह अमर हो जाता है अन्यथा नाशवान पानी के बुलबुले के समान दस-बीस मिनट में विनाश को प्राप्त हो जाता है।”
हमारी समझ में रात के ढाई बजे वाली यह काव्य-चेतना कभी पल्ले नहीं पड़ी । हमारी आंखों में नींद भरी होती थी । हम कहते थे ” तुम्हारी काव्य-चेतना तुम्हें मुबारक ! हम तो घोड़े बेच कर सो रहे हैं ।”- और हम सचमुच चादर तान कर सो जाते थे।
पत्नी कवयित्री हो ,तो हर समय घर का माहौल काव्य-रचना का बना रहता है । एक दिन श्रीमती जी ने सूचित किया कि उनको काव्य-पाठ के लिए आमंत्रित किया गया है। हमने पूछा “कहां से बुलावा आया है ? ” उन्होंने किसी शहर का नाम लिया । हमने कहा “वह तो बहुत दूर है । जाने में एक घंटा लग जाएगा । टैक्सी का आने-जाने का खर्च भी महंगा बैठेगा । कितने रुपए आयोजक तुम्हें दे रहे हैं ? ”
वह झुँझलाकर कहने लगीं ” तुम्हें रुपयों की पड़ी है । वह तो हमारी जान-पहचान निकल आई । अतः कवि सम्मेलन में काव्य पाठ के लिए बहन जी ने हमें जुगाड़ कर के आमंत्रित कर लिया । आज हमारी शुरुआत कवि सम्मेलन के मंच पर हो रही है । अगर टैक्सी से आना-जाना भी पड़ जाए तो तुम्हें खर्च करने में पीछे नहीं हटना चाहिए । आखिर सभी लोग अपनी पत्नियों के लिए कुछ न कुछ करते ही हैं ।”
मरता क्या न करता ! हमने महंगे दामों पर टैक्सी की । दफ्तर से छुट्टी ली । पत्नी के अंगरक्षक तथा सहायक के रूप में कवि सम्मेलन में उनके साथ-साथ रहे। श्रीमती जी ने कवि सम्मेलन में एक कविता पढ़ी । मंच पर पढ़ते समय काँप रही थीं, लेकिन बाद में कहा “अब जीवन में धीरे-धीरे आगे बढ़ने का समय आ गया है ।”
हम समझ गए कि अब हमें थोड़े-थोड़े दिनों बाद दफ्तर से छुट्टियां लेनी पड़ेंगी और गृह-कार्य में दक्ष होना पड़ेगा । आखिर श्रीमती जी कवयित्री जो बन गई हैं ।
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लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर( उत्तर प्रदेश )
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