बुद्ध के चेहरे का रहस्य
सभी महापुरुषों में शायद बुद्ध ही ऐसे महापुरुष हैं जिनकी मूर्ति या चित्र के रूप में केवल चेहरा ही पर्याप्त होता है अर्थात जब बुध्द की मूर्ति या चित्र बनाया जाता है तो ज्यादातर कलाकार बुद्ध का केवल एकरंगी एकदम सपाट गर्दन तक चेहरा बनाकर ही उनके शरीर और शक्तियों का संपूर्ण प्रदर्शन कर देता है। हालांकि वर्तमान समय और निकट भूतकाल में भी किसी ने बुद्ध का साक्षात्कार नहीं किया अतः बुद्ध की जो भी मूर्ति या चित्र बनाया जाता है वह पूर्णतः काल्पनिक एवं प्रतीकात्मक हो सकता है किंतु वह वर्षों से चली आ रही उसी परंपरा का निर्वाह है जो प्रारंभ में बुद्ध की मूर्ति बनने के समय से प्रारंभ हुई, अतः यह पूर्णतः काल्पनिक नही कलाकार के मन की उछाल नहीं बल्कि सच्चाई है।
अतः यह प्रश्न उठना तो लाज़मी ही है कि जहाँ अन्य महापुरुषों या धार्मिक देवी-देवताओं की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति उनके सम्पूर्ण आदमकद में बैठी हुई स्थिति या खड़ी हुई स्थिति या लेटी हुई स्थिति में होती है, सम्पूर्ण लौकिक भावनाओं एवं पारलौकिक शक्तियों के प्रदर्शन के साथ एवं प्रकृति के साहचर्य के साथ तो वहीं बुद्ध की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति केवल गर्दन और उनके मुखमंडल तक ही सीमित क्यों रह जाती है? उनके आदमकद या शक्तिप्रदर्शन या प्रकृति साहचर्य पर जोर क्यों नहीं दिया जाता और दिया जाता है तो उतना नहीं जितना अन्य महापुरुषों या धार्मिक देवी-देवताओं के ऊपर दिया जाता है?
शायद यही कारण है कि बाजार में मिलने वाली बुद्ध की ज्यादातर मूर्ति और चित्र केवल उनके मुख अर्थात चेहरे को ही प्रदर्शित करते हैं ना कि पूरे शरीर को। बाजार में बुद्ध के चेहरे की तमाम तरह की प्रतिकृतियां उपलब्ध रहती हैं। कोई सफेद संगमरमर में तो कोई काली संगमरमर में तो कोई ग्रेनाइट के हरे रंग में तो कोई लाल बलुआ पत्थर में तो कोई साधारण मिट्टी से बनी हुई। कोई फर्क ही नही पड़ता कि बुद्ध के चेहरे को किस गुणवत्ता के पत्थर, धातु, मिट्टी या रंगों से बनाया गया है। सब एक जैसा है कोई चमक धमक नहीं कोई साज सज्जा नहीं कोई अलंकार नहीं, सबकुछ समान सिर से लेकर गर्दन तक और पीछे का आधार सब समान, बंद आँखें, नाक, गाल, होठ, माथा, कान, गर्दन आदि सब समान सब एकरंगी सब भावहीन निर्जीव से सजीव लगते हुए।
बुद्ध के चेहरे की भिन्न-भिन्न प्रतिकृतियों को देखकर कोई भी मनुष्य हो किसी भी धर्म जाति का हो अनायास ही आकर्षित हो जाता है और संतुष्टि पाता है फिर चाहे वह बुद्ध को जानता है या नहीं जानता। शायद यही कारण है कि बौद्ध धर्माबलम्बियों के अलावा भी बुद्ध के चेहरे की प्रतिकृतियाँ हर जगह मिल जाती है घरों के ड्रॉइंग रूम में, दुकानों की दीवालों पर, मॉल-टॉकीज की सजावट में, स्कूल एवं अन्य दीवालों पर कड़ी हुई, होटलों-रेस्टोरेंट की दीवालों पर, बरामदों में यहाँ तक कि शराबघरों में भी। बिना किसी कर्मकांडीय औपचारिकता के, बिना फूल-माला, घी-दीपक, अगरबत्ती मोमबत्तियों के, दीवाल के मध्य में एकदम चुपचाप आँखें बंद कर टँगी रहती है या पारदर्शी दर्पण के पीछे या खुले में रखी रहती है।
क्या कभी सोचा है कि बुद्ध का केबल चेहरा ही पर्याप्त क्यों है? जबकि अन्य महापुरूषों देवी देवताओं को दिखाने के लिए तमाम अलंकारों एवं साधनों का प्रयोग किया जाता है। किसी के हाथों में हथियार तो किसी के चेहरे पर काल जैसा क्रोध तो किसी के पीछे प्रकृति का मनोरम दृश्य तो किसी के हाथों में सोने-चाँदी के सिक्कों से भरे हुए पतीले, तो किसी के हाथ में अमृत तो किसी के हाथ में स्वर सँगीत वाधयन्त्र तो कोई राक्षसों को पैरों से कुचलता हुआ तो कोई मोक्ष ज्ञान देता हुआ, किसी के साथ शेर-भालू-मोर तो किसी को बहुरंगीं चटकीले रंगों से रंगा जाता, तो कोई खुशी का आशीर्वाद देता हुआ तो कोई कष्टों को हरता हुआ, पता नहीं क्या-क्या प्रयोग किए जाते हैं, अपने-अपने धर्मों के प्रतीकों के प्रति लोगों को आकर्षित करने के लिए। कोई मंदिर की भव्यता प्रदर्शित करता है तो कोई मस्जिद की मीनारों को, कोई गिरजाघरों की वास्तुकला दिखाता है तो कोई गुरुद्वारों में शांति, सब अपने-अपने हिसाब से लोगों के चित्त को अपनी तरफ़ अपने धर्म की तरफ़ मनौवैज्ञानिक रूप से खींचने में लगे हुए हैं एवं आम इंसान के विचार जैसे डर-असुरक्षा, लालच-इक्षा आदि सभी का मनौवैज्ञानिक ठंग से अतिक्रमण करने में लगे हुए हैं।
किंतु बुद्ध के साथ ऐसा क्यों नहीं है? क्यों बुद्ध की आँखें खुलती नहीं? क्यों वो अपने भक्तों से उनकी नजरें मिलती नही? क्यों वो मुस्कुराते नहीं? क्यों वो दुष्टों का दमन करते नहीं? क्यों वो संगीत साधकों के साथ प्रकृति का मयूर नृत्य साथ में शेर-चीता-हाथी को एकसाथ करते नहीं? या अपने हाथों से अपने कर के मध्य से सोने-चाँदी के सिक्कों की वर्षा करते नहीं? जबकि वो भी एक प्रचारक थे श्रवण थे फिर भी बुद्धम-शरणम गच्छामि भी नहीं कहते? क्यों वो पौलौकिक आंनद के लिए स्वर्ग के द्वार या मोक्ष का द्वार खोलने के लिए कृष्ण की तरह आनंद को उपदेश देते हुए क्यों नहीं दिखते.? क्यों वो योगियों को योगासन सिखाते नहीं.? इसप्रकार देखें तो बुध्द के चेहरे में ऐसा कुछ है ही नही जिसे देखकर तृष्णा से तृप्त उन्हें भगवान माने या ज्ञान पिपासु-जिज्ञासु उन्हें गुरु या उपदेशक माने या दुख और कष्टों से थकाहारा उन्हें विघ्नहर्ता माने या कोई काला जादू करने वाला।
इतनी लौकिक-पारलौकिक विशेषताएं ना होने के बाबजूद भी बुद्ध असीमित हो चुके हैं जबकि अन्य धार्मिक प्रतीक सीमित ही बने रहते है सीमित स्थानों पर ही मिलते हैं, किंतु जब महायान बुद्ध सामने आते हैं तो वो भी सीमित है अन्य धार्मिक प्रतीकों की ही तरह। ऐसा क्यों होता है कि सभी देवी-देवता, पुरुष-महापुरुषों के चित्र-मूर्ति रंग, साज-सज्जा, अलंकार, शक्तिप्रदर्शन आदि बुद्ध के एकरंगी रूप से हार जाते है? क्या यह सोचकर सभी देवी-देवताओं और महापुरूषों को पीड़ा नही होती होगी कि महानतम कलाकार लियोनार्डों ने लास्ट सपर बनाया फिर भी जीसस गिरिजाघरों तक ही सीमित रहा, चटकीले रंगों से बने एवं मालामाल देवता हिन्दू घरों तक ही सीमित हैं, नानक गुरुद्वारों तक, महावीर जैन स्थानकों तक और काबा इस्लामिक घरों तक ही?
आखिर ऐसा क्यों है.? इसके पीछे क्या कारण है कि बुद्ध सभी सीमाएं तोड़कर सभी के घरों में घुस गए सभी की आँखों के सामने बैठ गए, दीवालों के एकदम मध्य में चिपक गए? यहाँ तक कि वैश्यालयों में भी, शराब खानों में भी, कभी कभी तो कसाई की दुकान में भी बुध्द आँखे बंद कर दीवाल पर चिपके मिलते हैं, सिवाय अफगानिस्तान को छोड़कर जिन्होंने बामियान में बुद्ध प्रतिमा को ही तोड़ दिया किंतु उसका उद्देश्य राजनीतिक था अगर गैर-राजनीतिक होता तो वह इस्लाम के उदय के साथ ही तोड़ दिया होता।
क्या कभी सोचा हैं कि आखिर बुद्ध ऐसा कौन सा जादू चला रहे हैं.? वो भी आँखें बंद करके, एकदम चुपचाप, सिर्फ सिर, चेहरा और गर्दन दिखाकर। आखिर में किसी बुद्ध आस्थावान व्यक्ति को बुद्ध की बंद आँखें एवं भावहीन प्रतिमा या चित्र देखकर क्या लाभ होगा.? वह तो उनके सामने रो भी नही सकता, तड़फ भी नही सकता यहाँ तक कि स्वयं को आहत करने की धमकी भी नही दे सकता। वह तो बुद्ध की तरफ़ जब भी देखेगा निराश ही होगा कि, “ बताओ मैं मरा जा रहा हूँ, हाथ में मिट्टी का तेल और माचिस लेकर खड़ा हूँ, और ये बचाने की जगह आँखें बंद कर बैठे हैं, जैसे इनको कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता”। ऐसी स्थिति में तो उन्हें देखकर कोई पापी ही खुश होगा कि चलो शराब पी लेते है, चोरी कर लेते हैं, पत्नी को दोखा दे लेते, महाराज तो आँखें बंद कर बैठे हैं। जब आँखें ही बंद है तो इन्होंने परोक्ष रूप से इशारा ही कर दिया है कि, “ लगे रहो, मैं नहीं देख रहा, और जब देख नहीं रहा तो गवाही भी नहीं बनती ना तो भूलोक पर और ना ही स्वर्ग या नर्क लोक में, इसलिए निश्चिन्त होकर कर्म करो, जैसा तुम्हे ठीक लगे वैसा करो!”
वास्तव में बुद्ध के चेहरे का आकर्षण ही मनुष्य का नैसर्गिक आकर्षण है और उसके अंतरमन की इक्षा है, जो उसे अनायास ही अपनी तरफ़ खींच लेती है। इसी कारण वह भावहीन एक दम सपाट चेहरे पर मर मिटता है और धर्म, जाति, क्षेत्र, देश आदि सभी सीमाएं लाँघते हुए वह बुद्ध की बंद आँखों पर अपनी खुली आँखें से आकर्षित हो जाता है। हालांकि बुद्ध को देखकर व्यक्ति के भावों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता किंतु उसकी आंतरिक चेतना, जो हरदम भागती-दौड़ती रहती है एवं अस्थिर रहती है, उसको हल्का सा ठहराव मिलता है शांति मिलती है उसकी थकान दूर होती। इसी कारण हर इंसान की नजरें बुध्द के चेहरे पर आकर रुक जाती हैं, वही रुकाव ही वही ठहराव ही बुद्ध के चेहरे का आकर्षण है उसमें घर्षण है ही नहीं चाहे उस चेहरे को कितना भी देखो, लगातार देखो लगेगा ही नही कि आँखें थक रही है या इससे भी सुंदर देखने की इक्षा कर रही हैं। किंतु तृष्णा की सुनामी में, इक्षाओं के बबंडर में इंसान समझ नहीं पाता फिर भी उसकी चेतना यही कहती है कि बुद्ध का चेहरा जरूरी है।
बुद्ध के चेहरे को अगर आप ध्यान से देखोगे तो पाओगे कि उस चेहरे पर कोई भाव ही नहीं है, कोई रेखा ही नही है ना खुशी की, ना दुख की और ना ही संतुष्टि की। एकदम सपाट चेहरा भावहीन चेहरा जैसा पहाड़ों के मध्य में कोई सुंदर झील बनी हो जिसमें ना शीतल हवा से कोई हलचल हो और ना ही सूरज के प्रकाश से कोई शिकन हो बस एकदम शांत, संतुष्ट और परिपक्व। बुद्ध के चेहरे में एक ठहराव है जिसमें कुछ भी ना पाने की लालसा है और ना ही छोड़ देने की बैचेनी जैसे एक मृत व्यक्ति के चेहरे में होती है। ना उसे लौकिक व्यवहार चाहिए और ना ही पारलौकिक मोक्ष या ईस्वर या आत्मा-परमात्मा का मिलन चाहिए। ना प्रेम की लालसा है और ना घृणा की बैचेनी ना सन्तुष्टि और ना ही असंतुष्टि। बस एक रहस्यात्मक ठहराव है जिंदा होते हुए भी मौत का सा ठहराव है, जो अद्भुद है, आश्चर्यजनक है, अलौकिक है। ऐसा कहीं भी नही योगियों के पास भी नहीं, जो बुद्ध के चेहरे में है। बुद्ध का चेहरा हर गति को रोक देता है चाहे मोक्ष पाने के लिए ही गति क्यों ना हो या परमात्मा से ऐकाकर होने की ही गति क्यों ना हो। यही कारण है कि बुद्ध ने ईस्वर, आत्मा, पुनर्जन्म को मानने से ही इंकार कर दिया क्योकि अगर मान लिया तो ठहराव नहीं होगा भाग दौड़ प्रारंभ हो जाएगी। जिससे जीवन में घर्षण होगा, घर्षण होगा तो भाव जागेगा और भाव उठेगा तो निर्भाव कैसे होगा? और निर्भाव ही तो ठहराव है और ठहराव ही बुद्ध है।
बुद्ध के चेहरे में ऐसी शांति है, ठहराव है, जो सागरों में नहीं, जो बादलों में नही, जो सूरज में नहीं, जो अंतरिक्ष में भी नहीं, विज्ञान और अध्यात्म के उस सत्य में भी नही जो गति और परिवर्तन को सृष्टि का अटल सत्य मानता है। बुध्द के चेहर पर सभी सीमाओं को लाँघती हुई तोड़ती हुई शांति हैं, आत्मा का ठहराव है जो श्मशान में होता है या मोक्ष-निर्वाण में होता है। शायद तभी बुद्ध अपने शिष्यों से कहते थे, “ सभी को निर्वाण प्राप्ति स्वयं के स्तर पर स्वयं के प्रयासों से ही करनी है!” उनके इस कथन से बहुत से लोग नाराज हो गए कि, ‘ तुम कैसे गुरु हो जो हमें निर्वाण नहीं दिला सकते? हम क्यों तुम्हारी सेवा करें, जो तुम हमको हमारे किए पापों से मुक्ति नहीं दिला सकते?’ बुद्ध समझते थे कि इंसान लालची है वह हर समय बिना हाथ-पैर हिलाए आंनद ही चाहता है और वो भी अपने तरीके का आनंद। पहले जीवन में आंनद फिर मरने के बाद परम्आंनद अर्थात मरने के बाद आनंद की मात्रा को बढ़ाना ही चाहता है, स्वर्ग में, जन्नत में हैवन में अप्सराओं का नृत्य देखते हुए, शराब, मदिरा, वाइन के जाम झलकाते हुए। बुद्ध समझते थे कि अगर मैंने इन्हें निर्वाण का मार्ग बता दिया तो ये तो अप्सराओं को परेशान ही कर देंगे नचा-नचा कर, कोई किसी गाने पर नृत्य की फरमाइश करेगा तो कोई किसी स्वाद की मदिरा मांगेगा, हंगामा कर देंगे वहाँ पर, कोलाहल कर देंगे, इंद्र के सभ्य नगर को असभ्य कर देंगे। इसी असभ्यता के कारण ही तो जीव को पृथ्वी पर भेजा है और फिर वहाँ जाकर ये पुनः असभ्यता बिखेर देंगे। और सबसे बड़ी बात महँगाई के जमाने में इंद्र देवता, स्वर्ग के देवता कहाँ से इंतजाम करेंगे, इन पेटुओं का पेट कैसे भरेंगे? स्वर्ग में हरप्रकार का भोजन देखकर इनकी तो भूख बढ़ जाएगी, हर प्रकार की भूख बढ़ जाएगी जो जायज है वो मिट जाएगी जो नाजायज़ है वो ज्यादा बढ़ जाएगी। इसलिए बुद्ध नही बदले क्योकि यह सत्य नहीं था, क्योंकि ये सब पौराणिक मिथकीय कहानी थी, क्योंकि यह कुंठा और मन को बहलाने और दबाने की कहानियां थी, क्योंकि यह क्षमा नहीं बल्कि बदला लेने के विचार मात्र थे।
इसलिए बुद्ध नहीं बदले वो उसी कथन पर बने रहे क्योकि वही सत्य था। इसलिए लोगों ने स्वयं को बदल लिया और बुद्ध का नया रूप महायान बना लिया जिसमें बोधिसत्व को लोगों को निर्वाण प्राप्ति में सहायता देने के लिए बना दिया, जो सभी को बुद्धिमान करेगा और निर्वाण दिलाएगा। जबकि जो बुध्द था उसे हीनयान बना दिया अर्थात हीन पथ, निचला मार्ग। वास्तव में तभी बुद्ध अपने मुखमंडल पर अपने व्यवहार में वह शांति और ठहराव ला पाए जो किसी की सहायता से मिलना संभव नहीं था।
जो भी हो बुद्ध के चेहरे पर एक दम मृत्यु जैसा ठहराव है किंतु मृत्य का वह ठहराव आम इंसान के लिए भय एवं डर जैसा नही, दुखी और परेशान के लिए सुख जैसा नहीं और शहीदों के लिए गर्व जैसा नहीं बल्कि वह तो ठहराव है जो नदियों को सागरों में जाकर मिलता है, हवा को अंतरिक्ष में मिलता है और जीव को निर्जीव होने पर मिलता है, ऐसा ठहराव है। शायद इसी ठहराव के लिए बुद्ध ने पुनर्जन्म को मानने से इंकार कर दिया था क्योंकि अगर पुर्नजन्म हुआ तो ठहराव कहाँ हुआ शांति कहाँ हुई, दूसरे जन्म के लिए भाग-दौड़ पुनः प्रारंभ हो जाएगी, शायद इसलिए ही बुद्ध ने आत्मा को नहीं माना क्योकि अगर आत्मा को माना तो वह स्थूल शरीर से निकलेगी, और निकलेगी तो कहीं तो जाएगी और आना-जाना प्रारंभ हो गया तो फिर ठहराव कहाँ, शायद इसलिए ही बुद्ध ने ईस्वर को नहीं माना क्योकि ईश्वर होगा तो कर्म-शरीर और आत्मा के स्तर पर हस्तक्षेप भी होगा और अगर हस्तक्षेप हुआ तो ठहराव कहाँ.?
शायद यही है बुद्ध के चेहरे का वह रहस्य और हमारी चेतना का बुद्ध के चेहरे की तरफ़ आकर्षण जो हम रोक ही नही पाते। जीवन की भागदौड़ करते हुए इंसान को बुद्ध का यही ठहराव अचानक ही उसे अपनी तरफ खींच लेता है, जिसके लिए इंसान जन्म लेता है जब से मरता है तब तक प्रयास करता रहता है, थकता रहता है शरीर से, मन से, विचारों से और आत्मा से भी और यही थकावट ही बुद्ध के चेहरे की तरफ़ इशारा करती है कि मुझे यह चाहिए, बहुत हो गया बस अब और नहीं। और यही जीवन का अटल एवं वास्तविक सत्य है जिसे बुध्द ने जीवित रहते हुए ही प्राप्त किया ।
प्रशांत सोलंकी
नई दिल्ली-07