बुढ़ापे का बोझ
ताउम्र खुशगवार
मौसम व रंगीले संसार
का लुत्फ लिया
जीवन को जी भर के
तबियत से जिया
पर बेशक आज तलक
जीवन से मोहभंग
नही हुआ।
जाग्रत विवेक के सहारे
जितना जीवन को
मैंने जीतना चाहा
सच कहें तो अनवरत
उतना दिन ब दिन
हारता गया
जितना जीवन में
वैराग्य लाने की
कामना की
उल्टा उतनी ही जीने की
चाह बढ़ती ही गयी
नदी के किनारे बैठा
था,की पर प्यास
जो थी वह कम ही
नही हो रही थी।
जीवन के इस सोपान
पर आकर
आकलन जब करने चला
पता लगा कि मेरे
हाथ तो कुछ भी
नही लगा।
जीने के संवेग व जीवन
की असारता के
मध्य द्वंद्व चलता रहा
मेरे हाथ तो कुछ
भी नही लगा।
तंद्रा भंग तब हुई
जब बुढ़ापे की आहट
मुझे लगी
बाल सफेद व चेहरे पर
झुर्रियां दिखी
सीढियां चढ़ने पर
स्वयं को हाँफते देखा
अपने को बस
खाली हाथ ही पाया
लगा निर्मेष
अब तो बुढ़ापे के
बोझ को बस ढोना है
जिसे आज तलक
जीवन समझता रहा
जीने का उद्देश्य
मानता रहा
वह तो बस एक सांसारिक
झुनझुना निकला।
निर्मेष