बीते कल की रील
कहां हुए गुम , बचपन के दिन
थे सब मालिक जहाजो के
तिरा किया थे पानी मे भी
और उडे थे हवाओ मे
बना के टोली चले हमजोली
मोहल्ले भर के, शाम ढले
कभी कबड्डी, कभी गप्पमस्ती
नए नवेले अक्सर खेल रचे
फजलू चाचा कह दे कुछ काम
या दीना मौसी मंगवाए किलो भर आम
बिना भेद के निभते जाते
पड़ोसी घर सब एक कुनबा समान
बगल रसोई बनी जो जलेबी
गरम गरम, कटोरी दीवार कूद आती
अपने घरवाले की वाह से पहले
भाभी , देवर की दाद है पाती
शादी मे जो जमा थी रौनक
हर घर की थी हिस्सेदारी
गद्दे रजाई बिछे सभी छतो मे
मिलकर जुटे और निभी जिम्मेदारी
कैसी भी हो कोई खुशखबर
दो लड्डू या बर्फी हर घर
खुले दिलो के मेल जोल से
अक्सर गम था बेअसर
अकेलापन का भान ना था
बूढा कोई परेशान ना था
नया कोई जो शहर मे आए
अनजानो से हैरान ना था
तेज गतिशील जीवन मे
रिश्तो की गरमाहट पिछड गई
स्वयंसिद्ध करने की चाहत मे
घर भीतर ही दिवार खिंच गई