बाल-विवाह सरीखी कुप्रथा पर कड़ा प्रहार करता उपन्यास: ‘कच्ची उम्र’ -विनोद वर्मा ‘दुर्गेश’
पुस्तक समीक्षा:
पुस्तक: कच्ची उम्र
लेखक: धर्मबीर बडसरा
प्रकाशक: शब्द-शब्द संघर्ष, मयूर विहार, गोहाना रोड़, सोनीपत
पृष्ठ संख्याः120 मूल्यः 150 रू.
आनंद कला मंच एवं शोध संस्थान भिवानी की पुस्तक प्रकाशन योजना के तहत प्रकाशित धर्मबीर बडसरा का उपन्यास ‘कच्ची उम्र’ बाल-विवाह पर आधारित उपन्यास है। इस उपन्यास की नायिका अनवी के इर्दगिर्द सिमटी कहानी कई अनसुलझे प्रश्नों को सुलझाती है। हरियाणा, राजस्थान, बिहार, मध्यप्रदेश, उत्तर-प्रदेश व अन्य राज्यों में आज भी बाल-विवाह जैसी कुप्रथाएं अपनी जड़ें जमाए हुई हैं। इस कारण उन मासूम बच्चों का भविष्य अंधकारमयी है। न वे स्वयं के बारे में सोच पाते हैं न अपने जीवन साथी और घर-परिवार के बारे में। कच्ची उम्र में ही जिम्मेवारियों का बोझ नन्हें कंधों पर आ जाने से जीवन कितना नीरस एवं चिड़चिड़ा हो जाता है, यह तो केवल वही जान सकता है जो इसकी गिरफ्त में आता है।
भले ही धर्मबीर बडसरा का नाम साहित्य के गलियारों में नया हो, परंतु उनका यह पहला उपन्यास उनकी काबिलियत को दर्शाता है। पुस्तक रचना के संदर्भ में उनका यह पहला प्रयास अत्यंत सार्थक प्रतीत होता है। एक छोटी सी घटना को आधार बना कर लिखा गया ‘कच्ची उम्र’ उपन्यास जीवन के कटु सत्य को उजागर करने में सफल रहा है।
उपन्यास का आरंभ बड़ा ही सटीक एवं दिल पर प्रहार करने वाला है। घनश्याम की पत्नी जब धन्नो काकी के पैर छूती है तो धन्नो काकी उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति का आशीर्वाद देती है। तब घनश्याम की पत्नी प्रत्युत्तर में कहती है-‘काकी लड़की रत्न क्यों नहीं?’ यह प्रश्न पाठकों को सोचने पर मजबूर कर देने वाला हो सकता है। आज समय बदल रहा है। दंगल जैसी फिल्मों ने लोगों की सोच में आंशिक बदलाव जरूर ला दिया है। लेकिन समाज का एक धड़ा आज भी पुत्र-रत्न की मंशा का पक्षधर है। उपन्यासकार ने स्वयं धन्नो काकी के माध्यम से यह दर्शाने का प्रयास किया है कि ‘ये घनश्याम की घरवाली भी बावली है, ऐसे भी कोई बोलता है क्या? लड़के के लिए तो लोग पता नहीं क्या-क्या जतन करते हैं, औरतें कहाँ-कहाँ देवी माता के मंदिरों में, मस्जिदों में अपने भगवान से दुआएं करती हैं कि लड़का हो और एक तुम हो कि लड़की रत्न का आशीर्वाद माँगती हो।’
जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते हैं कोतूहल और बढ़ता जाता है। नायिका अनवी के पिता का किसी परिचित से फोन पर बातंे करते हुए बाल-विवाह पर विमर्श देना अनवी को एक ऐसे धरातल पर ला पटकता है जिससे उसके जीवन की दिशा ही बदल जाती है। वह मन ही मन प्रण कर लेती है कि वह समाज से बाल विवाह जैसी कुप्रथा को समाप्त करके ही दम लेगी। उसका यह प्रण कोरा प्रण नहीं होता, बल्कि वह इसे अमली जामा भी पहनाती है और इसकी परिणति बहुत सी बच्चियों को कच्ची उम्र में विवाह से रोकने के रूप में होती है।
उपन्यास के पृष्ठ संख्या 46 पर शिक्षिका से छात्रा का संवाद बड़ा ही मार्मिकतापूर्ण है। जैसे-‘एक लड़की ने कहा-टीचर जी क्या फायदा पढ़ाई का। अभी मैं छठी कक्षा में हूँ। आठवीं तक जाते-जाते मेरी शादी हो जाएगी। फिर वही चूल्हा-चैका, पशुओं का गोबर उठाना, खेती का काम करना, यही सब……………. टीचर जी यह मेरे साथ ही नहीं, इन सभी लड़कियों के साथ होगा। 2 या 3 वर्ष में इनकी शादी कर दी जाएगी और आपकी कक्षा खाली रह जाएगी।’
उपन्यासकार ने मुख्य नायिका अनवी को विषम परिस्थितियों से जूझते हुए तथा उन पर फतह पाते हुए दर्शाया है। अंत में अनवी अपने मिशन में सफल होती है और डीएसपी दीनानाथ पाण्डे द्वारा उसे ‘हीरो’ की उपाधि देकर सम्मानित करते हैं। पाठक को कहीं भी यह नहीं लगता है कि विषय से भटकाव की स्थिति उत्पन्न हुई है। संवादों में जहाँ एकरूपता व तारतम्यता का भाव विद्यमान है वहीं रोचकता का पुट भी अपने चरम स्तर पर दिखाई पड़ता है। मुद्रण में अशुद्धियां बहुत कम हैं। लेखक के रंगीन चित्र युक्त आवरण सामान्य होते हुए भी काफी आकर्षक एवं प्रभावशाली है। उपन्यास कच्ची उम्र उपयोगी एवं सहेज कर रखने लायक है। कुल मिलाकर लेखक अपने इस प्रयास के लिए साधुवाद का पात्र है।
-विनोद वर्मा ‘दुर्गेश’