बारिश पर तीन कविताएं /©मुसाफिर बैठा
1. बारिश, रंग और जाति
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बारिश की कोई तय
जाति नहीं होती
न ही उसके पानी का
कोई रंगधर्म होता है
मगर उसे पाने को
सभी रंग की जाति के लोग
लपकते हैं
जाति और रंग
मनुष्य से बनते हैं
मनुष्य से खराब होते हैं
मनुष्य को बारिश सा
धरती पर उतरने आना चाहिए
नस्ल भेद से परे
सादा सादा
सादे प्राकृतिक रंग में।
2. देह, देवता और बारिश
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किंवदंतियों में वर्षा देवता होते हैं
वर्षा देवता का प्रकोप चलता है मनुष्य पर
मनुष्य में भी देवता का आरोप होता रहा है मगर
वर्षा देवता इन्द्र के
देहधारी होने की कथा के बावजूद
इंद्र मनुष्यावतारी नहीं हैं
मनुष्य देहधारी देवता कृष्ण का
इन्द्र से पंगा लिए जाने की कथा आम है
एक उंगली पर पूरे गोवर्धन पर्वत को
धारण करने का अपूर्व कारनामा
करते हैं कृष्ण
और वर्षा देवता इन्द्र के
प्रकोप–वर्षा और वर्षा जल प्लावन से
समूचे गोकुलवासी को बचा लेते हैं अकेले वे!
हर्ष या विषाद देने
देह से लिपटते वर्षा को तो
मनुष्य ने देखा किया है हमेशा
बाकी
वर्षा को देवताओं द्वारा
अपनी राजनीति में लपेट
मनुष्य को घिसट देने के यत्न का
यह मामला अपूर्व है।
3. समय समय की बात है
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पानी को बरसते देखना
अभी बेतरह भाता है मुझे
निहारते निहारते उसे
जी नहीं भरता
नहाना वर्षा जल में
मौज मस्ती साधते हुए
बेशक बचकाना लगेगा
इस पकी उम्र में
यह समेत
कई चाहें दबानी पड़ती हैं
समय समय की बात है
उधर,
बचपन में यह पानी का बरसना
मिश्रित भाव में डाल देता था कुछ वक्त
बरसते पानी बीच नहाने में
जहां मस्ती–मजा का परावार न था
वहीं फूस के रिसते छप्पर के चलते
यह हमारे परिवार पर
कंपकंपी दिलाती कहर बरपाता था
रहना, खाना–पीना मुहाल होकर
जीना दुश्वार हो जाता था हमारा
समय समय की बात है!