बादल बरखा का अनूठा प्यार !
इठलाता हुआ चला था बादल भर बरखा को अपने आँचल ,
किसकी बुझानी है आज प्यास किस किस को है हमारी आस ?
लेकिन बरखा तो थी बड़ी उदास , जवाब देना न आया उसे रास ।
बिलख बिलख कर रोने लगी ,बहाने लगी अपना नीर ,
क्यूँ करते हो मुझे ख़ुद से जुदा
भरने किसी और की पीड !!
कितनी प्यार भरी निगाहों से करते हो मेरा हरण ,
समा लेते हो अपने भीतर ,
फिर क्यूँ देते हो बिछड़ने की पीड़न!!
बोला बादल, अरे पगली ,
अपने इस मिलने बिछड़ने से होता है बहुतों का उपकार
चलती है उनकी दुनिया बसता है उनका संसार !
और अपना क्या है! जहाँ दिखेगी अगली बार तेरी छवि
भर लूँगा फिर तेरा नीर , बुला लूँगा फिर अपने क़रीब
समेट लूँगा फिर से बाहों में, चलेंगे इठलाते हए गगन में तुम हम ,
मिलने बिछड़ने से ही तो सजती है जीवन की सरगम !