बाँध लो ज़रा
मोह माया भंग हुई
मिथ्या जाना शब्दों का
वर्ण देती थी निमंत्रण
आओ यूज़ करो हमें
टूटे – फूटे फिर भी
शब्द संचार का करे गान
भाव भी जगेगी
ऊर्जा भी बहेगी
फिर बिखेर – बिखेर कर
अपना अस्तित्व करु उज्ज्वल
एक पहचान तो दो ज़रा
बस एक बार ही
वर्णो – वर्णो के बन्धन में
बाँध लो ज़रा
फूल भी खेलेगी
एक दिन मैं भी
फूल मुरझा सकती
पर ये नहीं कभी !
इसके शब्द शक्ति में
रवि – शशि भी तकते
ऊपर – ऊपर बहे गगन
निर्मल करने बून्द – बून्द से
घट तड़ित मेघ कुन्तल से
काली किन्तु करती श्वेत धरा
बीत चुकी यह उपवन
लय भी ढूंढती स्वयं को
खूब खोजती यत्र – तत्र
पर क्या ! बताऊँ भी कैसे ?
यह काल किस ग्रास में
पर फिर भी भंग हुई कैसे !
मिथ्या ही सही अब तो
सत्यता में तो कटुता छुपा
बेचैन कर देती उनकी
प्रतिबिम्ब आईने के तस्वीर
मिलती यहीं दूर्दिन व्यथाएँ
घुट – घुट कर एक उम्मीद थी
फिर एक कशिश कोशिश – सी
तन्मय भी थी पर दोष कहीं
छुपा किसी किनारे के कोने में
साँप लौट रही औरों की
सिहरन रोंगटे खड़े सशरीर
मैं आंख मून्द लेता हूँ छोड़
चट्टे – बट्टे भी देखे सब
मिलीभगत तो दुनिया सब
लाइन, दो लाइन खींच देते
फिर चौथाई तक जाते
सोच, हृदय में उसके करते शोर
दुबक – दुबक बैठे सशरीर
फिर वहीं मोह माया भंग थी
अब मिथ्या जाना वर्णो का