बरसात- भाग-2
यही कलकल, यही मधम यही भीष्णा है
बरस पड़ा फिर किसी की ख्वाहिश में
देखो यही तो कुदरत का करिश्मा है।
सबसे यह स्वर लड़ाये, ध्वणी में इसके वीणा है
अंबर, धरती और सागर, में इसका जीना है
निर्मित हो आकाश में, और धरा पर इसे मिटना है
मेघ भी छाये, ठंडी समीर भी लाये
वजुद में इसके न कोई तृषणा है।
किसान के कृदन भावों मे बरस पड़ा
उनकी फसल को इसे सींचना है।
न जाने कैसे सिखा इस बरसात ने
हर किसी को कैसे जितना है।
ये छलकता बुंद बन पत्तों में,
परछाई बनती आंखो के काले चक्कों में
कहानी इसकी सिमटी कई परतो में
बारिश फिर बरसा है, बरसेगा
बरसात बन अपनी शर्तों में।
विक्रम कुमार सोनी