बरसात और वो मासूम
वो बरसात बहुत तूफ़ानी थी
ठण्ड की उस बरसात में
वो मासूम ठिठुर रहा था
जैसे -२ शीतल बूँदे उसपे पड़ती गयीं
उसका तापमान बढ़ता गया ,
लोग जनवरी की उस ठंडी बरसात में
घरों में घुस के ब्लोअर – हीटरों
के सामने बैठे थे …
लेकिन उस मासूम का न ही कोई घर था
न ही कोई आसरा ,
कुछ तबियत उसकी पहले से भी नासाज़ थी
जहाँ लेटा उस जगह से
किसी और ठौर की तलाश में कुछ हिलने का प्रयास किया
पर हिल न सका
अपने फटे कम्बल में घुसता गया
लेकिन उस बरसात की बूंदें
कुछ खूनी सी लग रहीं थीं
वो कम्बल के फटे छेदों से
उस मासूम के शरीर पे धीरे धीरे पड़
के गहरे से आघात करती गयीं ,
मौसम बहुत ठंडा सा हो चुका था
पेड़ पौधे सब नहा के
बहुत शांत हो चुके थे ,
अब उस बच्चे सांसे मंद होती जा रही थीं
उसका शरीर अब कम्बल से आ चुका था
और वो *हवास खोता जा रहा था
इस आस में की कोई उसे गोद में उठा ले
हर तरफ फैले पानी से निकाल ले
पर भला आधी रात को
इस घनघोर बरसात में कोई मानुष तो क्या
कोई जानवर भी न दिख रहा था ,
अब सुबह हो चुकी थी
कीचड , पानी और घनी हरियाली का नज़ारा था
पर इसके साथ ही एक और मंज़र था
जिसे लोग देख के गुज़र जा रहे थे
हाथ हाथ भर के पानी में दम तोड़ गया मासूम था
और अब उसे किसी गोद की तलाश न थी
अब उसकी बंद हो चुकी आँखों को
कुछ कन्धों की तलाश थी ,
कुछ लोगों के मन को वो बारिश महका गयी होगी
लेकिन न जाने कोई मौसम कोई बरसात
हमारे दिलों को जगा नहीं पाती
और बारिश की बूंदों के पड़ते ही हम सब मुस्कुरा उठते है
पर भूल जाते है
की कही कोई भीग रहा होगा बिना आशियाँ के
की कही कोई भीग रहा होगा बिना आशियाँ के |
द्वारा – नेहा ‘आज़ाद’
* हवास = सुध