बदल जाए तो फितरत कहां
सूर्य उदय होत है ले सिन्दूरी स्वर्णिम आभा
पावन सरयू में स्नान करत ऋषि मंत्र जापा
दे सूर्य अर्ध्य खोले चक्षु पड़ी नजर औचक
अधमरा सा बहत जात जल धारा में वृश्चिक
नद्य धार संग बहत जात उलटत पलटत
जप तप त्यागा प्राण रक्षा हेतु तैरे झटपट
पाये ऋषि कर स्पर्श वृश्चिक दिनो डंक चुभाए
हस्त छिटके जोर से मुख से निकलत हाय
पुनः करे प्रयास वृश्चिक पुनः देय डंक चुभाए
वेदना औ मुस्कान दोउ ऋषि मुख पर देत दिखाएं
सब कुछ देखत रहे उनके शिष्य अज्ञानी
डसत बारंबार फिर काय बचात प्राण बोले ऐसी बानी
निकरे जात प्राण फिरउं न त्यागत आपन फितरत
पाओ जन्म जनकल्याण को जात मानुष बिसरत
लहू-लुहान हस्त कमल से वृश्चिक लियो उठाए
रख दियो धरा पर प्रेम से डूबत लियो बचाए
संकट में है प्राण तबहु न वो फिरे फितरत से
कैसे त्यागूं मैं पर जीव रक्षा की हसरत को
सुन उत्तर गुरु का शिष्य भये मौन
गुपचुप देखत “अचला” फितरत बदले कौन-कौन
पुष्पा सिंह “अचला”