बचपन
एक बचपन अपने अधनंगे बदन को
मैले कुचैले कपड़ों मे समेटता ,
अपनी फटी बाँह से
बहती नाक को पौछता ,
बचा खुचा खाकर भूखे पेट सर्द रातों में
बुझी भट्टी की राख में गर्मी को खोजता ,
मुँह अन्धेरे उठकर अपने नन्हे हाथों से
कढ़ाई को माँजता ,
और यह सोचता कि वह भी
बड़ा होकर मालिक बनेगा ,
तब अपने से बचपन को
अधनंगा भूखा न रहने देगा ,
न ठिठुरने देगा उन्हे सर्द रातों को ,
और न फटने देगा उनके नन्हे हाथों को ,
तभी भंग होती है तंद्रा उसकी ,
जब पड़ती है एक लात मालिक की ,
और आती है आवाज़ ,
क्यों बे दिन मे सोता है ?
तब पथराई आँखें लिये वह
दिल ही दिल मे रोता है ,
ग्राहकों की आवाज़ पर भागता है ,
कल के इन्तज़ार मे यह सब कुछ ,
सहता है ! सहता है ! सहता है !