~ बंद किताब ~
कुछ ऐसी थी कहानी, ज़िन्दगी की किताब में,
मैं क्या हूँ ये समझने में कुछ वक़्त लग गया,
लिखे थे डायलाग जो, वो मैं बोला कुछ और,
फिर बिखरे थे रिश्ते .. मेरे शब्दों के जाल में,
न किरदार रहा खुद का कोई,
ना कुछ बाकी रहा अब ख्वाब में,
ना शब्द बचे ना रिश्ते, सब थे अनजान से,
ये मेरी कहानी खत्म होने को आई है,
दफ़्न रह जायेगा सब इस…. बंद किताब में….
◆◆©ऋषि सिंह “गूंज”