फुर्सत
फुर्सत ही तो नहीं है
आजकल हमें, आप या लोगों को,
क्योंकि बड़े आधुनिक जो हो गये हैं हम ।
फुर्सत नहीं है की आड़ में
सबसे दूर होते जा रहे हैं हम
संस्कार, सभ्यता भूलते जा रहे हैं हम।
हमारी संवेदनाएं मरती जा रही हैं
अपने भी आज अपना कहें भी तो किसे
खुद ही समझ नहीं पा रहें अब,
एकल परिवारों और सोशल मीडिया ने
इस समस्या का ईजाद किया है,
साथ साथ रहते हुए भी
एक दूजे को दूर कर दिया है।
बूढ़े बुजुर्ग बेगाने हो रहे हैं,
पारिवारिक सदस्य भी अब अंजाने लग रहे हैं
दांपत्य जीवन में भी रिश्तों का भाव मर रहा है
स्वार्थ की आड़ में हर रिश्ता समय पास कर रहा है।
औलादों को दोष तो हम सब देते हैं
पर ईमानदारी से बताइए
हम,आप आज उन्हें कितना समय देते हैं?
सच तो यह है कि अपने बच्चों से
हम आप ही उनका बचपन छीन रहे हैं
फुर्सत नहीं मिलती की आड़ में
उनके जीवन में हम आप ही जहर घोल रहे हैं।
जब हमारे पास अपनों के लिए ही फुर्सत नहीं है
तब अपनों से यही शिकायत हम आखिर क्यों कर रहे हैं?
फुर्सत कहाँ और कब हमें आमंत्रण देता है
फुर्सत हमें खुद तलाशना पड़ता है
फुर्सत को सम्मान देना पड़ता है
तब फुर्सत भी हमारा बगलगीर होता है।
हमारी पिछली पीढ़ियां
हमसे कम व्यस्त या कम जिम्मेदार तो नहीं थीं,
तब इतनी सुख सुविधाएं भी तो नहीं थीं,
हाँ ये और बात है कि वो आधुनिक नहीं थे
शायद इसीलिए लिए हमसे ज़्यादा
व्यवहारिक, संवेदनशील और मानवीय थे
अपनों को अपने करीब रखते थे
संस्कार सभ्यता हमसे बहुत ज्यादा था उनमें
माँ, बाप, बुजुर्गों, परिवार की खुशी की फ़िक्र थी उन्हें
फुर्सत उन्हें भी कभी नहीं रही जनाब
फिर भी वे फुर्सत निकाल लेते थे,
उसके लिए उनके अपने बहाने होते थे,
और हम फुर्सत नहीं है के नये नये
बहाने गढ़ने में बड़ी शान समझते हैं
और दोष फुर्सत की आड़ में व्यस्तता को देते हैं
क्योंकि हम आधुनिकता के रंग में रंगते जा रहे हैं,
अपने ही पुरखों को बेवकूफ
साबित करने की एक दूजे से होड़ कर रहे हैं।
सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा उत्तर प्रदेश