फ़ितरत अपनी अपनी…
जान जाते जो तुम्हें हम, दिल न यूँ तुमसे लगाते।
क्यों जगाते कामनाएँ, चाहतों को पर लगाते ?
जानते जो बेवफाई, है तुम्हारी फ़ितरतों में,
जिंदगी के राज अपने, क्यों तुम्हें सारे बताते ?
जो पता होता हमें ये, तुम नहीं लायक हमारे,
किसलिए तुमको रिझाने, महफिलें दिल की सजाते ?
जो भनक होती जरा भी, है तुम्हारी प्रीत झूठी,
देख तुमको पास हम यूँ, होश क्यों अपने गँवाते ?
था यही बस ज्ञात हमको, तुम हमारे नित रहोगे,
इसलिए हर बात दिल की, फ़ितरतन तुमको सुनाते।
हर कदम देना दगा बस, कूट फ़ितरत थी तुम्हारी।
काश, इक पल तो कभी इन, हरकतों से बाज आते।
आरियाँ दिल पर चलाते, तोड़ कर विश्वास मन का,
क्या गुजरती चोट खा यूँ, काश तुम ये जान पाते ।
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद